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जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

कुछ मत मिले हराम

भला-बुरा तै सोच के, करले अपने काम । बिगड़य झन कुछु कोखरो, कुछ मत मिले हराम ।। कुछ मत मिले हराम,  कमा ले जांगर टोरे । दूसर के कुछु दोस, ताक मत आंखी बोरे ।। अपने अंदर झांक, नेकि के हवस खुरा तै । करले सुघ्घर काम, सोच के भला-बुरा तै ।।

साफ बोले मा हे बुराई का

आदरणीय सौरभ पाण्ड़े के भोजपुरी गजल ‘‘साफ़ बोले में बा हिनाई का ? काहें बूझीं पहाड़-राई का ? ‘‘ के छत्तीसगढ़ी मा अनुवाद - ------------------------------- साफ बोले मा हे बुराई का ? डबरा डिलवा हवय बताई का ?? रात दिन मा मितानी हे कइसन ? धंधा पानी मा भाई-भाई का ?? सब इहां तो हवय सुवारथ मा ? होय मा हमरे जग हसाई का ?? चंदा ला घेरे हे गा चंदैनी, कोनो इंहा सभा बलाई का ?? आज साहित्य के मुनाफा का ? ददरिया करमा गीत गाई का ?? जब मुठा के पकड़ बताना हे, फेर ये हाथ अउ कलाई का ?? खुदकुसी के हुनर मा माहिर हम, फेर का कामना, बधाई का ? कोखरो मुॅंह मा खून जब लागय, जानथन ऐखरे दवाई का ??

पुरखा के ये साधना

जुन्ना जुन्ना गोठ ला, खरा सोन तै जान । पुरखा के ये साधना, साधे सबो सियान ।। साधे सबो सियान, जिंनगी अपन उतारे । सुख-दुख के सब काम, सबो झन बने सवारे ।। कह ‘रमेश्‍ा‘ कवि राय, गोठ सुन मोरे मुन्ना । अजमा के तैं देख, गोठ हे सुघ्घर जुन्ना ।। जेन सहय रे आॅच ला, खाय तेन हर पाॅंच । खुल्ला किताब हाथ मा, लेवा कोनो बाॅच ।। लेवा कोनो बाॅच, जगत के येही सच हे । सहे जेन तकलीफ, आज ओही हा गच हे ।। जीवन एक सवाल, सियाने मन इहां कहय रे । उत्तर देथे पोठ, आदमी जेन सहय रे ।।

काम कोने हर आथे

आथे अलहन सांय ले, धर के कोनो रंग । दू पइसा रख हाथ मा, बेरा मा दै संग ।। बेरा मा दै संग, ददा दाई तो बनके । पइसा बन भगवान, संग देही जी तन के ।। कह ‘रमेश‘ कविराय, सबो ला पइसा भाथे । जग मा पइसा छोड़, काम कोने हर आथे ।।

मोरे मन के पीर

देखत तो रहिगेंव मैं, वो सपना दिन रात । गोठियावंव का अपन, सपना के वो बात ।। सपना के ओ बात, गीत मोरे कब बनगे । मोरे मन के पीर, गीत मा कइसे ढल गे ।। गोहरात रहिगेंव, आंसु आंखी के पोछत । अक्केल्ला मत छोड़, तभो गय मोला देखत ।।

हिम्मत कतका तोर हे

हिम्मत कतका तोर हे, लड़थस दूसर संग । बात बात मा तै करे, दूसर ला बड़ तंग ।। दूसर ला बड़ तंग, करे बड़ गलती देखे । दउड़े पीसे दांत, हाथ मा लाठी लेके । बारी अपने देख, करे तैं कतका किम्मत । अपने गलती देख, हवय गर तोरे हिम्मत ।।

रंधहनी मा झाक तो

रंधहनी मा झाक तो, कइसे बनथे भात । माई लोगिन का करे, कइसे ओ सिरजात ।। कइसे ओ सिरजात, चूलहा मा आगी जी । कइसे रांधे भात, रांधते कइसे भाजी जी ।। दया मया ला डार, बनाये हवय सही मा । जेवन हर ममहाय, तभे तो रंधहनी मा ।।

सरग उतर गे खेत मा

सरग उतर गे खेत मा, छोड़ के आसमान । करत हवे बावत गजब, जिहां हमरे किसान ।। जिहां हमरे किसान, भुंइया के जतन करत हे । धरती के भगवान, जगत बर धान छिछत हे ।। देखत अइसन काम, सुरुज हा घला ठहर गे । देखे के ले साध, खेत मा सरग उतर गे ।।

जइसे बोबे बीजहा

जइसे बोबे बीजहा, तइसे पाबे बीज । बर्रे काटा बोय के, चाउर खोजेे खीझ । चाउर खोजे खीझ, धान तै हर बिन बोये । काम बनाथे भाग , समझलव जी हर कोये ।। कह ‘रमेश‘ कवि राय, बुता करलव जी अइसे । करलव जी साकार, तोर सपना हे जइसे ।।

नागर बोहे कांध मा

नागर बोहे कांध मा, किसान जावत खेत । संग सुुवारी हा चले, कुदरी रपली लेत ।। कुदरी रपली लेत, बीजहा बोहे मुड़ मा । बइला रेंगे संग, चलत हे अपने सुर मा । पहुॅचे हे जब खेत, सरग ले लगथे आगर । अर्र अर-तता गीत, गात जब जोते नागर ।।

गरीब कुरिया मोर

चिखला हे हर पाॅंव मा, अंधियार हर ठांव । झमा-झमा पानी गिरे, कती करा मैं जांव ।। कती करा मैं जांव, छानही तरई आंजन । बाहिर बूंद न जाय, निंद हम कइसे भांजन ।। करे गोहार ‘रमेशः, कोन देखय गा दुख ला । गरीब कुरिया मोर, अंगना घर मा हे चिखला ।

विश्व सिकल सेल दिवस मा -

बड़ दुखदायी रोग हे, नाम हे सिकल सेल । खून करे हॅसिया बनक, करे दरद के खेल ।। करे दरद के खेल, जोड़ मा हॅसिया रोके । कहां ऐखर इलाज, दरद पेले मुड़ धोके ।। फोलिक एसिड़ संग, खूब पानी फलदायी । शादी मा रख ध्यान, रोग हे बड़ दुखदायी ।। -रमेश चौहान

योग भगाथे रोग ला

योग भगाथे रोग ला, कहे हवे विद्वान । सिद्ध करे हे बात ला, दुनिया के विग्यान ।। दुनिया के विग्यान, परख डारे हे ऐला । कहे संयुक्त राष्ट्र, योग कर छोड़ झमेला ।। हमर देश के नाम, योग जग मा बगराथे । मान लौव सब बात, रोग ला योग भगाथे ।।

काज कर धरम करम के

धरम करम के बात हा, कुरीति आज कहाय । चमत्कार विग्यान के, देख सबो मोहाय ।। देख सबो मोहाय, आज के हमरे मुन्ना । एक्को झन नइ भाय, गोठ ला हमरे जुन्ना ।। चमत्कार हे देह, धरम हे प्राण देह के । मिलही तोला मोक्छ, काज कर धरम करम के ।।

आज बचपना बचा दव

पढ़ा लिखा लव ज्ञान बर, देवव जी संस्कार । नान्हे लइका ला अपन, पढ़ई मा झन मार ।। पढ़ई मा झन मार, लदक के बोझा मुड़ मा । लइकापन छोड़ाय, जहर देवव मत गुड़ मा ।। कह ‘रमेश‘ कविराय, आज बचपना बचा दव । छोड़व मार्डन सोच, ज्ञान बर पढ़ा लिखा लव ।।

पांव पखारे शिष्य के

पांव पखारे शिष्य के, गुरू मन हर आज । चेला जब भगवान हे, गुुरू के का काज ।। गुुरू के का काज, स्कूल हा होटल होगे । रांध खवा के भात, जिहां गुरूजी हा सोगे ।। कागज मा सब खेल, देख तै मन ला मारे । लइका होगे पास, चलव गा पांव पखारे ।।

आगे रे बरसात

झूम झमा झम झूम के, आगे रे बरसात । चिरई चिरगुन के घला, खुशी अब ना समात ।। खुषी अब ना समात, चहक के गाय ददरिया । झिंगूरा ह बजाय, चिकारा होय लहरिया ।। करय मेचका टेर, गुदुम बाजा कस दम दम । मजूर डेना खोेल, नाचथे झूम झमा झम ।।

मोर मन हा गे डोल

धीरे-धीरे कान मा, मधुरस दिस ओ घोल । बोलिस ना बताइस कुछु, मोर मन हा गे डोल ।। मोर मन हा गे डोल, देह के रूआब पाके । छेडि़स सरगम गीत, स्वास ले तीर म आके ।। मुच-मुच ओ हर हाॅस, मोर हिरदय ला चीरे । आॅखी आॅखी डार, बोल दिस धीरे-धीरे ।।

होय ओ कइसे ज्ञानी

ज्ञानी आखर के कभू, होथे कहां गुलाम । पढ़े-लिखे हर आदमी, होवय ना विद्वान ।। होवय ना विद्वान, रटे ले पोथी पतरा । साकुर करे विचार, धरे पोटारे कचरा ।। अपन सोच ल बिसार, पिये दूसर के पानी । पढ़े-लिखे के काम, होय ओ कइसे ज्ञानी ।।

लइका हा लइका रहय

लइका हा लइका रहय, कोन रखे हे ध्यान । बांधे हे छोटे-बड़े, लइकापन के मान ।। लइकापन के मान, हवय खेले कूदे मा । पढ़ई लिखई के नाम, बांध दे हें खूटा मा । पढ़ बाबू दिन-रात, बचा इज्जत के फइका । अव्वल तै हर आंव, कहे सब मोरे लइका ।।

करे बेहाल गांव ला

बेजाकब्जा हे करे, घेरे सबो चरिया । करे बेहाल गांव ला, छेके सबो परिया ।। छेके सबो परिया, गली रद्दा ला छेके । खुदे करे हे घाव, कहां पीरा ला देखे ।। जुन्ना घर ला बेच, सड़क मा बोथें रकजा । करथे गरब गुमान, करे ओ बेजाकब्जा ।।

आंखी रहिके अंधरा

जाने हे सब बात ला, पर माने हे कोन । आंखी रहिके अंधरा, देख रहय सब मोन ।। देख रहय सब मोन, मजा दुुनिया के घाते । परे ऐखरे फेर, गजब के सब झन माते ।। सच के रद्दा जेन, घात पटपर हे माने । इहां कहां ले आय, कहां कोनो हा जाने ।। आंखी रहिके अंधरा, आज जगत हा होय । अपन हाथ मा घाव कर, फेर काहेक रोय ।। फेर काहेक रोय, काम ला बिगड़े देखे । लोभ सुवारथ मोह, अपन झोली म समेटे ।। कह ‘रमेश‘ कविराय, जिना हे पीरा सहिके । कब आजहि रे मौत, दिखय ना आंखी रहिके ।

होय जगत के चार गुरू

होय जगत के चार गुरू, चारो रूप महान । पहिली गुरू दाई ददा, जेन हमर भगवान ।। जेन हमर भगवान, देह दे दुनिया लाये । मिलय दूसर म स्कूल, हाथ धर जेन पढ़ाये ।। तीसर फॅूंके हे कान, सिखाये धरम भगत के । आखिर गुरू भगवान, जेन हर होय जगत के ।। आखिर गुरू भगवान हे, छोड़ाथे भव मोह । परम शक्ति ले वो मिला, मेटे परम बिछोेह ।। मेटे परम बिछोेह, जगत मा आना जाना । परम अंश हे जीव, परम से हे मिल जाना।। गुरू हा देवय ज्ञान, देह ला जानव जस चिर । देह देह के प्राण, छोड़ के जाही आखिर ।।

दारू सुख-दुख के सेती

ऐती ओती जाय के, कोनो कोती देख । ऐला ओला जेन ला, रंग सबो के एक ।। रंग सबो के एक, नाम  दरूहा हे ओखर  । मान सम्मान दारू, दारू जिनगी हे जेखर ।। कइसनो रहय हाल, दारू सुख-दुख के सेती । कोलकी गली खार, देख ले ओती ऐती ।। -रमेश चौैहान

आत हे मानसून

झमा-झमा पानी गिरे, आत हे मानसून । जूड़ावत छाती हमर, मन गाये गुनगून ।। मन गाये गुनगून, देख के बदरी कारी । फुदक-फुदक हरसाय, चिरइ चिरगुन मतवारी ।। पुरवाही ह सुहाय, आय अब रूख म जवानी । लइका नाचय देख, गिरत झमा-झमा पानी ।।

परयावरण

चारोे कोती तोर रे, का का हे तै देख । धरती अगास पेड रूख, हवा पानी समेख ।। हवा पानी समेख, जेखरे ले जिनगी हे । ‘पंच-तत्व‘ हा आज, परयावरण कहाय हे । करव ऐखर बचाव, आय जिनगी के मोती । गंदगी ला बहार, साफ रख चारो कोती ।।

कतका तोरे सोर

मुॅंह तोरे बगराय हे, सबो डहर अंजोर । चारो कोती देख तो, कतका तोरे सोर ।। कतका तोरे सोर, लगय चंदा हा सिठ्ठा । गुुरतुर बोली तोेर, मीठ ले जादा मिठ्ठा ।। नसा घात छलकाय, अपन आंखी मा बोरे । बहिया तो बन जाय, जेेन देखय मुॅह तोरे ।।

फोकट फोकट मा

फोकट फोकट मा धरे, कौड़ी वाले लाख । छूट-लूट अनुदान बर, करे करेजा राख ।। करे करेजा राख, आत्म सम्मान भुलाये । मनखे खासो-आम, ठेकवा ला देखाये । अपात्र होगे पात्र, पात्र के होगे चौपट । कइसन चलत रिवाज, चाहथे सब तो फोकट।।

जुन्ना तोरे गोठ ला

जुन्ना तोरे गोठ ला, बांधे रह गठियाय । हमला का करना हवय, जेन हमला बताय ।। जेन हमला बताय, हवय ओ कतका मूरख । कोनो तो ना भाय, तभो देखावय सूरत ।। नवा जमाना देख, होय सुख सुविधा दून्ना । धरे रहिस तकलीफ, जमाना तोरे जुन्ना ।। -रमेेश चौेहान

गोठ करे हे पोठ रे

गोठ करे हे पोठ रे, संत कबीरा दास । आंखी रहिके अंधरा, देखे कहां उजास ।। देखे कहां उजास, अंधियारे हा भाथे । आंखी कान मूंद, जेन अपने ला गाथे ।। देखय ओ संसार, जेन जग छोड़ खड़े हे । परे जगत के फेर, आत्म के गोठ करे हे ।। -रमेश चौहान

माटी लोंदा आदमी

माटी लोंदा आदमी, गुरू हे जस कुम्हार । करसी मरकी जे मढ़य, ठोक-ठठा सम्हार ।। ठोक-ठठा सम्हार, गढ़य सुनार कस गहना । गुरू हे जस भगवान, संत मन के हे कहना ।। गोहार करे ‘रमेश‘, हवय गुरू के परिपाटी । रउंद ही गुरू पांव, होय मा कच्चा माटी ।।

आजा बादर झूम के

आजा बादर झूम के, हवय अगोरा तोर । खेत खार अउ अंगना, मया बंधना छोर ।। मया बंधना छोर, बरस रद-रद झर-झर के । धरती प्यासे घात, जुड़ावय ओ जी भर के ।। नाचही गा ‘रमेष‘, बजा के अपने बाजा । देखत हे सब निटोर, झूम केअब तै आजा ।

समय बावत के होगे

होगे किसान व्यस्त अब, असाढ़ आवत देख । कांटा-खूटी चतवार अउ, खातू-माटी फेक । खातू-माटी फेक, खेत ला बने बनावय । टपकत पानी देख, मने मन मा हरसावय ।। ‘ पागा बांध रमेश‘, बहुत अब तक तै सोगे । हवय करे बर काम, समय बावत के होगे ।।

पूछथें दाई माई

खाय हवस का साग तै, पूछ करय शुरूवात । आ हमरो घर बइठ लव, कहां तुमन या जात ।। कहां तुमन या जात, पूछथें दाई माई । आनी बानी गोठ, फेर फूटय जस लाई ।। घात खुले ये हार, नवा मंगाय हवस का । बने हे देह पान, जड़ी-बुटि खाय हवस का ।।

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