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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

मदिरा सवैया

रूप न रंग न नाम हवे कुछु, फेर बसे हर रंग म हे । रूप बने न कभू बिन ओखर, ओ सबके संग म हे ।। नाम अनेक भले कहिथे जग, ईश्वर फेर अनाम हवे । केवल मंदिर मस्जिद मा नहि, ओ हर तो हर धाम हवे ।।

छंदकार रमेश चौहान के दोहा

"अपन अभिव्यक्ति के सुघ्घर मंच"

छंदकार रमेश चौहान के नवगीत-‘‘मैं तो बेटी के बाप‘‘

छंदकार रमेश चौहान के कुण्डलियां-‘महतारी छत्तीसगढ़‘

जोगीरा सारा रारा

मउरे आमा ममहावय जब, नशा म झूमय साँझ । फाग गीत मा बाजा बाजे, ढोल नगाड़ा झाँझ ।। जोगीरा सारा रारा .. जोगीरा सारा रारा .. सपटे सपटे नोनी देखय, मचलत हावे बाबू । कइसे गाल गुलाल मलवं मैं, दिल हावे बेकाबू । जोगीरा सारा रारा .. जोगीरा सारा रारा .. दाई ल बबा हा कहत हवय, डारत-डारत रंग । जिनगी मोर पहावत जावय, तोर मया के संग ।। जोगीरा सारा रारा .. जोगीरा सारा रारा .. भइया-भौजी खेलत होरी, डारत रंग गुलाल । नंनद देखत सोचत हावय, कब होही जयमाल ।। जोगीरा सारा रारा .. जोगीरा सारा रारा .. होली हे होली हे होली, धरव मया के रंग । प्रेम जवानी सब मा छाये, सबके एके ढंग ।। जोगीरा सारा रारा .. जोगीरा सारा रारा ..

चल न घर ग

भृंग छंद नगण (111) 6 बार अंत म पताका (21) चल न घर ग, बिफर मत न, चढ़त हवय दारू । कहत कहत, थकत हवय, लगत हवय भारू ।। लहुट-पहुट, जतर-कतर, करत हवस आज । सुनत-सुनत, बकर-बकर, लगत हवय लाज ।।

भठ्ठी ल करव बंद

दारू म छठ्ठी छकत हवय गा, दारू म होय बिहाव । दारू म मरनी-हरनी होवय, मनखे करे हियाव ।। दरूहा-दरूहा के रेम लगे, सजे रहय दरबार । दारू चुनावी दंगल गढ़थे, अउ गढ़थे सरकार ।। गली-गली मा शोर परत हे, भठ्ठी ल करव बंद । पीयब छोड़ब कहय न कोनो, कहय रमेशानंद ।।

लोकतंत्र मा छूट हवे

आजादी हे बोलब के, तभे फूटत बोल । सहिष्णुता के ढाल धऱे, बजावत हस ढोल ।। देश तोरे राज तोरे, अपन अक्कल खोल । बैरी कोन काखर हवे, तहुँ थोकिन टटोल ।। जतका कर सकस कर बने, सत्ता के विरोध । लोकतंत्र मा छूट हवे, कोनो डहर ओध ।। दाई असन हवय धरती, देश ला मत बाँट । आनी-बानी बक बक के, माथा ल झन चाट ।।

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