सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

आसों के जाड़

आसों के ये जाड़ मा, बाजत हावय दांत । सुरूर-सुरूर सुर्रा चलत, आगी घाम नगांत ।। आगी घाम नगांत, डोकरी दाई लइका । कका लमाये लात,  सुते ओधाये फइका ।। गुलगुल भजिया खात, गोरसी तापत हासों । कतका दिन के बाद, परस हे जाड़ा आसों ।। आघू पढ़व

मैं माटी के दीया

नवगीत मैं माटी के दीया वाह रे देवारी तिहार मनखे कस दगा देवत हस जीयत भर संग देहूँ कहिके सात वचन खाये रहेय । जब-जब आहूँ, तोर संग आहूँ कहिके मोला रद्दा देखाय रहेय कइसे कहँव तही सोच मोर अवरदा तेही लेवत हस मैं माटी के दीया अबला प्राणी का तोर बिगाड़ लेहूँ सउत दोखही रिगबिग लाइट ओखरो संताप अंतस गाड़ लेहूँ मजा करत तैं दुनिया मा अपने ढोंगा खेवत हस

बिना बोले बोलत हे

गाले मा हे लाली,  आँखी मा हे काजर, ओठ गुलाबी चमके, बिना ओ श्रृंगार के । मुच-मुच मुस्कावय, कभू खिलखिलावय बिना बोले बोलत हे, आँखी आँखी डार के ।।

ददरिया-ओठे लाली काने बाली

ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी फुरूर-फुरूर चुन्दी हो........... फुरूर-फुरूर चुन्दी डोले, डोले मनुवा मोरे ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी आघू पढ़व............

सुघ्घर कहां मैं सबले

मैं सबले सुघ्घर हवंव,  तैं घिनहा बेकार । राजनीति के गोठ मा, मनखे होत बिमार । मनखे होत बिमार,  राजनेता ला सुनके । डारे माथा हाथ,  भीतरे भीतर  गुणके ।। सुनलव कहय रमेश, रोग अइसन कबले । नेता हमरे पूत, कहां सुघ्घर मैं सबले ।। - रमेश चौहान

मया करे हिलोर

तोर आँखी के दहरा, मया करे हिलोर बिना बोले बोलत रहिथस बिना मुँह खोले । बिना देखे देखत रहिथस आँखी मूंदे होले-होले मोर देह के छाया तैं प्राण घला तैं मोर रूप रंग ला कोने देखय तोर अंतस हे उजयारी मोरे सेती रात दिन तैं खावत रहिथस गारी बिना छांदे छंदाय हँव तोर मया के डोर मोर देह मा घाव होथे पीरा तोला जनाथे अइसन मयारू ला छोड़े देवता कोने मनाथे तोर करेजा बसरी बानी मया तोर जस चितचोर

सुरता साहित्य के धरोहर

ये बलॉग ‘सुरता‘ के अब अपन खुद के वेबसाइट ‘सुरता साहित्य के धरोहर ‘ मा घला जाके मोर जम्मा ब्लॉग ला एक जघा मा देख सकत हव ।  येखर संगे संग छत्तीसगढ़ के अउ दूसर साहित्यकार के रचना घला इहां आपमन देख सकत हव। अपन  खुद के रचना इहां पोष्ट कर सकत हव । https://www.surtacg.com/ सुरता साहित्य के धरोहर ये लिंक मा जाके देख सकत हव 

मया कोखरो झन रूठय

कइसन जग मा रीत बनाये, प्रेम डोर मा सब बंधाये । मिलन संग मा बिछुडन जग मा, फेरे काबर राम बनाये ।। छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय लोरिक-चंदा हीरे-रांझा,  प्रेम जहर ला मन भर पीये । मरय मया मा दूनों प्रेमी,  अपन मया बर जिनगी जीये ।। छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय काया बर तो हृदय बनाये, जेमा तो मया जगाये । फेरे काबर रामा तैं हा, आगी काबर येमा लगाये । छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय

एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे

(श्री गोपालदास नीरज  की कविता‘‘जीवन नही मरा करता‘‘ से अभिप्रेरित) लुका-लुका के रोवइयामन, कान खोल के सुन लौ रे । फोकट-फोकट आँसु झरइया, बात मोर ये गुन लौ रे ।। हार-जीत सिक्का कस पहलू, राखे जीवन हर जोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। सपना आखिर कहिथें काला, थोकिन तो अब गुन लौ रे । आँसु सुते जस आँखी पुतरी,  मन मा पलथे सुन लौ रे ।। टुटे नींद के जब ओ सपना, का बिगड़े हे तब भोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। काय गँवा जाथे दुनिया मा, जिल्द ल बदले जब पोथी । रतिहा के घोर अंधियारी, पहिरे जब घमहा धोती ।। कभू सिरावय ना बचपन हा, एक खिलौना के टोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। कुँआ पार मा कतका मरकी, घेरी-बेरी जब फूटे । डोंगा नदिया डूबत रहिथे, घाट-घठौंदा कब छूटे ।। डारा-पाना हा झरथे भर,  घाम-झांझ कतको झोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। काहीं ना बिगड़य दर्पण के, जब कोनो मुँह ना देखे । धुर्रा रोके रूकय नहीं गा, कोखरोच रद्दा छेके ।। ममहावत रहिथे रूख-राई, भले फूल लव सब टोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। -रमेश चौहान

हिन्दी छत्तीसगढ़ी भाखा

हिन्दी छत्तीसगढ़ी भाखा, अंतस गोमुख के गंगा । छलछल-छलछल पावन धारा, तन मन ला राखे चंगा ।। फेशन बैरी छाती छेदय, मिलावटी बिख ला घोरे । चुटुर-पुटुर अंग्रेजी आखर, पावन धारा मा बोरे ।।

ये हँसी ठिठोली

ये हँसी ठिठोली, गुरूतुर बोली, मोरे अंतस खोले । ये कारी आँखी, हावय साखी, मोरे अंतस डोले ।। जस चंदा टुकड़ा, तोरे मुखड़ा, मोरे पूरणमासी । मन कुहकत रहिथे, चहकत रहिथे, तोरे सुन-सुन हाँसी ।।

एक रही हम मनखे जात

तोर मोर हे एके जात, दूनों हन मनखे प्राणी । नेक सोच ला अंतस राख, करबो गा हमन सियानी ।। तोर मोर ले बड़का देश, राखब हम एला एके । नो हन कोनो बड़का छोट, बुरा सोच देथन फेके ।। अगड़ी-पिछड़ी कइसन जात, अउ ये दलित आदिवासी । बांट रखे  हमरे सरकार, इही काम हे बदमासी ।। वोट बैंक पर राखे छांट, नेता के ये शैतानी । एक रही हम मनखे जात, छोड़-छाड़ अब नादानी ।। -रमेश चौहान

परगे आदत

रहत-रहत हमला, परगे आदत, हरदम रहत गुलाम । रहिस हमर जीवन, काम-बुता सब, मुगल आंग्ल के नाम ।। बड़ अचरज लगथे, सुनत-गुनत सब, सोच आन के लाद । कहिथन अब हम सब, होगे हन गा, तन मन ले आजाद ।।

लोकतंत्र के देवता

रोजी-रोटी के प्रश्न के, मिलय न एक जवाब । भिखमंगा तो जान के, मुफत बांटथे जनाब ।। फोकट अउ ये छूट के, चलन करय सरकार । जेला देखव तेन हा, बोहावत हे लार । सिरतुन जेन गरीब हे, जानय ना कुछु एक । जेन बने धनवान हे, मजा करत हे नेक । काबर कोनो ना कहय, येला भ्रष्टाचार । जनता अउ सरकार के, लगथे एक विचार ।। हर सरकारी योजना, मंडल के रखवार । चिंता कहां गरीब के, मरजय धारे धार । फोकट बांटे छोड़ के, केवल देवय काम । काम बुता हर हाथ मा, मनखे सुखी तमाम । लोकतंत्र के देवता, माने खुद ला आन । चढ़े चढ़ावा देख के,  बने रहय अनजान ।। -रमेशचौहान

छत्तीसगढ़ी ला पोठ बनाव

भाषा अपन बिगाड़ मत, देखा- शे खी आन कहाये । देवनागरी के सबो,  बावन अक्षर घात सुहाये ।। छत्तीसगढ़ी  मा भरव,  सबो वर्ण ले शब्द बनाए । कदर बाढ़ही एखरे , तत्सम आखर घला चलाए ।। पढ़े- लिखे अब सब हवय, उच्चारण ला पोठ बनाही। दूसर भाषा संग तब, अपने भाषा हाथ मिलाही । करव मानकीकरण अब, कलमकार सब एक कहाये । पोठ करव लइका अपन, भाषा अपने पोठ धराये ।।

कभू आय कभू तो जाय

कभू आय कभू तो जाय, सुख बादर जेन कहाये। सदा रहय नहीं गा साथ, दुख जतका घाम जनाये ।। बने हवय इहां दिन रात, संघरा कहां टिक पाये । बड़े होय भले ओ रात, दिन पक्का फेर सुहाये ।।

कती खोजी

कती जाई कती पाई, खुशी के ओ ठिकाना ला । कती खोजी गँवाये ओ, हँसे के रे बहाना ला ।। फिकर संसो जिये के अब, नदागे लइकुसी बेरा । बुता खोजी हँसी खोजी, चलय कइसे नवा डेरा ।।

ये गाँव ए

ये गाँव ए भल ठाँव ए,  इंसानियत पलथे जिहां। हर राग मा अउ गीत मा, स्वर प्रेम के मिलथे इहां  ।। हे आदमी बर आदमी, धर हाथ ला सब संग मा । मनखे जियत तो हे जिहां, मिलके धरा के रंग मा । संतोष के अउ धैर्य के, ये पाठशाला  आय गा । मन शांति के तन कांति के, रुखवा जिहां लहराय गा ।। पइसा भले ना हाथ मा, जिनगी तभो धनवान हे । खेती किसानी के बुते, हर आदमी भगवान हे ।।

छोड़ शांति के खादी

घात प्रश्न तो आज खड़े हे, कोन देश ला जोरे । भार भरोसा जेखर होथे, ओही हमला टोरे ।। नेता-नेता बैरी दिखथे, आगी जेन लगाथे । सेना के जे गलती देखे, आतंकी ला भाथे ।। काला घिनहा-बने कहँव मैं, एके चट्टा-बट्टा । सत्ता धरके दिखे जोजवा, पाछू हट्टा-कट्टा ।। देश पृथ्ककारी के येही, रक्षा काबर करथे । बैरी मन के देख-रेख मा, हमरे पइसा भरथे ।। देश पृथ्ककारी हे जेने, ओला येही पोसे । दोष अपन तो देख सकय ना, दूसर भर ला कोसे ।। थांघा आवय आतंकी मन, पेड़ अलगाववादी । जड़ ले काटव अइसन रूखवा, छोड़ शांति के खादी ।।

जतेक हे अलगाववादी

जतेक हे अलगाववादी, देश अउ कश्मीर मा । सबो ल पोषत कोन हे गा, सोच तो तैं धीर मा । हमार ले तो टेक्स लेके, पेट ओखर बोजथे । नकाम सब सरकार लगथे, जेन ओला तो पोषथे ।।

एक जग के सार येही

राम सीता राम सीता, राम सीता राम राम । श्याम राधा श्याम राधा, श्याम राधा श्याम श्याम ।। नाम येही जाप कर ले, मोर मनुवा बात मान । एक जग के सार येही, नाम येही सार जान ।। -रमेश चौहान

अंग्रेजी के जरूरत कतका

अंग्रेजी के जरूरत कतका, थोकिन करव विचार । भाषा चाही के माध्यम गा, का हे येखर सार ।। मानत जानत हे दुनिया हा, अपने भाषा नेक । दूसर भाषा बाधा जइसे,  रद्दा राखे छेक ।। हर विचार हा अपने भाषा, होथे बड़का पोठ । अपन सोच हा दूसर भाषा, लगथे अड़बड़ रोठ ।। अपने भाषा के माध्यम मा, पढ़ई-लिखई  नेक । मूल सोच ला दूसर भाषा, राखे रहिथे छेक ।। दुनिया के भाषा अंग्रेजी, आथे बहुथे काम । भाषा जइसे येला सीखव, पावव जग मा नाम ।। अंग्रेजी माध्यम के चक्कर, हमला करे गुलाम । अपने भाषा अउ विचार मा, काबर कसे लगाम ।।

देखव शहर के गाँव मा

देखव शहर के गाँव मा, एके दिखे हे चाल ।। परदेश कस तो देश हा, कइसे कहँव मैं हाल।। अपने अपन मा हे मगन, बड़का खुदे ला मान । मतलब कहां हे आन ले, अपने अपन ला तान ।। फेशन धरे हे आन के,  अपने चलन ला टार । अपने खुशी ला देखथे, परिवार ला तो मार ।। दाई ददा बस पोसथे, लइका अपन सिरजाय । बड़का बढ़े जब बेटवा, दाई ददा बिसराय ।। बिगडे़ नई हे कुछु अभी, अपने चलन धर हाथ । जुन्ना अपन संस्कार धर, परिवार के धर साथ ।। भर दे खुशी ला आन के, पाबे खुशी तैं लाख । एही हमर संस्कार हे, एही हमर हे साख ।। -रमेश चौहान

दारु भठ्ठी बंद कर दे

गाँव होवय के शहर मा, एक सबके चाल हे ।। रोज दरूहा के गदर मा, आदमी बेहाल हे ।। हे मचे झगरा लड़ाई, गाँव घर परिवार मा ।। रोज के परिवार टूटय, दारू के ये मार मा ।। रात दिन सब एक हावे,, देख दरूहा हर गली । हे बतंगड़ हर गली मा, कोन रद्दा हम चली । जुर्म दुर्घटना घटे हे, आज जतका गाँव मा । देख आँखी खोल के तैं, होय दरूहा दाँव मा ।। सोच ले सरकार अब तैं, दारू के ये काम हे । आदमी बेहाल जेमा, दाग तोरे नाम हे ।। दारू भठ्ठी बंद कर दे, टेक्स अंते जोड़ दे । पाप के हे ये कमाई,  ये कमाई छोड़ दे । आदमी के सरकार तैं हा, आदमी खुद मान ले । आदमी ला आदमी रख, आदमी ला जान ले ।। काम अइसे तोर होवय, आदमी बर आदमी । आदमी के कर भलाई, हस तभे तैं आदमी ।। -रमेश चौहान

बड़का बड़े, ये देश

हर जात ले, हर धर्म ले, आघू खड़े, ये देश । हे मोर ले, अउ तोर ले, बड़का बड़े, ये देश ।। सम्मान कर, अभिमान कर, तैं भुला के, खुद क्लेष । ये मान ले, अउ जान ले, हे तोर तो, ये देश ।। विरोध करव, सरकार के, जनतंत्र मा, हे छूट । पर देश के, तै शत्रु बन, सम्मान ला, झन लूट ।। पहिचान हे, अभिमान हे, हमर सैनिक, हे वीर । अपन धरती, अउ देश बर, डटे रहिथे, धर धीर ।। -रमेश चौहान

//काम के अधिकार चाही//

छाती ठोक के, मांग करव अब, काम के अधिकार । हर हाथ मा तो, काम होवय, रहब न हम लचार ।। हर काम के तो, दाम चाही, नई लन खैरात । हो दाम अतका, पेट भर के, मिलय हमला भात ।। खुद गुदा खाथे, देत हमला, फोकला ला फेक । सरकार या, कंपनी हा, कहां कोने नेक ।। अब काम के अउ, दाम के तो, मिलय गा अधिकार । कानून गढ़ दौ, एक अइसन, देश के सरकार ।।

फोकट मा झन बाँट

फोकट मा झन बाँट तैं, हमर चुने सरकार । देना हे ता काम दे, जेन हमर अधिकार ।। जेन हमर अधिकार,  तोर कर्तव्य कहाये । स्वाभिमान ला मार, सबो ला ढोर बनाये  ।। पैरा-भूसा डार, अपन बरदी मा ठोकत ।  लालच हमर जगाय, लोभ मा बाँटत फोकट ।। फोकट फोकट खाृय के, मनखे होत अलाल । स्वाभिमान हा मरत हे, काला होत मलाल ।। काला होत मलाल, निठल्ला हवय जवानी । काम-बुता ना हाथ, करत शेखी शैतानी । पइसा पावय चार, अपन जांगर ला झोकत । अइसे करव उपाय, बाँट मत अब कुछु फोकट ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

मया बिना जीवन कइसे

बिना तेल के दीया-बाती, हे मुरझाय परे । बिना प्राण के काया जइसे, मुरदा नाम धरे ।। मया बिना जीवन कइसे, अपने दम्भ भरे । घाम-छाँव जीवन के जतका, सब ला मया हरे ।।

नीत-रीत दूसर बर काबर

निंद अपन आँखी मा आथे, अपन मुँह मा स्वाद । सुख ला बोहे हाँस-हाँस के, दुख ला घला लाद ।। अपने कोठी अपने होथे, आन के हर भीख । नीत-रीत दूसर बर काबर, खुदे येला सीख ।। -रमेश चौहान

करत हवँव गोहार दाई

जय जय दाई नवागढ़ के, जय जय महामाय करत हवँव गोहार दाई, सुन लेबे पुकार । एक आसरा तोर हावे, पूरा कर दुलार ।। दुनिया वाले कहँव काला, मारत हवय लात । पइसा मा ये जगत हावे, जगत के ये बात ।। लगे काम हा छूट गे हे, परय पेट म लात । बिना बुंता के एक पइसा, आवय नही हाथ ।। काम बुता देवय न कोनो,  देत हे दुत्कार । करत हवँव गोहार दाई, सुन लेबे पुकार । नान्हे-नान्हे मोर लइका, भरँव कइसे पेट । लइकामन हा करय रिबि-रिबि, करँव कइसे चेत ।। मोर पाप ला क्षमा करदौं, क्षमा कर दौ श्राप । काम-बुता अब हाथ दे दौ, कहय लइका बाप ।। काम-बुता अउ बिना पइसा, हवय जग बेकार । करत हवँव गोहार दाई, सुन लेबे पुकार । करत हवँव गोहार दाई, सुन लेबे पुकार । एक आसरा तोर हावे, पूरा कर दुलार ।।

नवा जमाना आगे

मिलत नई हे गाँव मा, टेक्टर एको खोजे । खेत जोतवाना हवय, खोजत हँव मैं रोजे ।। बोवाई हे संघरा, नांगर हा नंदागे । नवा जमाना खेती नवा, नवा जमाना आगे ।।

हमर किसानी, बनत न थेगहा

मिलत हवय ना हमर गांव मा, अब बनिहार गा । कहँव कोन ला सुझत न कूछु हे, सब सुखियार गा ।। दिखय न अधिया लेवइया अब, धरय न रेगहा । अइसइ दिन मा हमर किसानी, बनय न थेगहा ।।

जब कुछु आही

बुता काम बिना दाम, मिलय नही ये दुनिया । लिखे पढ़े जेन कढ़े, ओही तो हे गुनिया ।। बने पढ़व बने कढ़व, शान-मान यदि चाही । पूछ परख तोर सरख, होही जब कुछु आही ।

अरे बेटा, गोठ सुन तो,

अरे बेटा, गोठ सुन तो, चलय काम कइसे । घूमत हवस, चारो डहर, घूमय मन जइसे ।। चारो डहर, नौकरी ला, खोजत हस दुनिया । आसा छोड़, अब येखरे, ये हे बैगुनिया ।। जांगर पेर, काम करथे, घर के ये भइसा । खेत जाबो, हम कमाबो, पाबो दू पइसा ।। तोर अक्कल, येमा लगा, कर खेती बढ़िया । ठलहा होय, बइठ मत तैं, बन मत कोढ़िया ।।

‘चलायमान कोन हे‘

गुमान मन करथे, मैं हा हवँव चलायमान । स्वभाव काया के, का हे देखव तो मितान ।। बिना टुहुल-टाहल, काया हे मुरदा समान । जभेच तन ठलहा, मन हा तो घूमे जहाँन ।। जहान घूमे बर, मन हा तो देथे फरमान । चुपे बइठ काया, गोड़-हाथ ला अपन तान ।। निटोर देखत हस, कुछ तो अब अक्कल लगाव । विचार के देखव, ये काखर हावे स्वभाव ।।

जाके बेटा खेत डहर

जाके बेटा खेत डहर, कांटा ला सकेल । आवत हावे मानसून, खातू ला ढकेल ।। बोना हावय धान-पान, खेत-खार निढाल । बीज-भात ला साफ करत, नांगर ला निकाल ।।

जांघ अपने काट के हम, बनावत हन साख

धर्म अउ संस्कार मा तो, करे शंका आज । आंग्ल शिक्षा नीति पाले, ओखरे ये राज ।। देख शिक्षा नीति अइसन, आय बड़का रोग । दासता हे आज जिंदा, देश भोगत भोग ।। देख कतका देश हावे, विश्व मा घनघोर । जेन कहिथे जांघ ठोके, धर्म आवय मोर ।। लाख मुस्लिम देश हावय, लाख क्रिश्चन देश । धर्म शिक्षा नीति मानय, राख अपने वेष ।। हिन्द हिन्दू धर्म बर तो, लाख पूछत प्रश्न । आन शिक्षा नीति देखव, मनावत हे जश्न ।। आज हिन्दू पूत होके, प्रश्न करके लाख । जांघ अपने काट के हम, बनावत हन साख ।।

समय हृदय के साफ

समय हृदय के साफ, दुवाभेदी ना जानय । चाल-ढाल रख एक, सबो ला एके मानय । पानी रहय न लोट, कमल पतरी मा जइसे । ओला होय न भान, हवय सुख-दुख हा कइसे । ओही बेरा एक, जनम कोनो तो लेथे । मरके कोनो एक, सगा ला पीरा देथे ।। अपन करम के भोग, भोगथे मनखे मनखे । कोनो बइठे रोय, हाँसथे कोनो तनके ।।

अरे जवानी

अरे जवानी भटकत काबर, रद्दा छोड़ । परे नशा पानी के चक्कर, मुँह ला मोड़ ।। धरती के सेवा करना हे, होय सपूत । प्यार-व्यार के चक्कर पर के, हवस कपूत ।।

बेजाकब्जा गाँव-गाँव

बेजाकब्जा गाँव-गाँव, लगत हवय कोढ़ । अपन बिमारी रखे तोप, कमरा ला ओढ़ ।। अंधरा-भैरा साधु चोर, हवय एक रंग । बचही कइसे एक गाँव, दिखय नहीं ढंग ।। -रमेश चौहान

भाव

भाव में दुख भाव मेॆं सुख, भाव में भगवान । भाव  जग व्यवहार से ही, संत है इंसान । भाव चेतन और जड़ में,  भाव से ही धर्म । भाव तन मन ओढ़ कर ही, करें अपना कर्म ।।

दोष देत सरकार ला, सब पिसत दांत हे

दोष देत सरकार ला, सब पिसत दांत हे । ओखर भीतर झाक तो, ओ बने जात हे । जनता देखय नही, खुद अपन दोष ला । अपन स्वार्थ मा तो परे, बांटथे  रोष ला ।। वो लबरा हे कहूॅं, तैं सही होय हस ? गंगा जल अउ दूध ले, तैं कहां धोय हस ?? तैं सरकारी योजना, का सही पात हस ? होके तैं हर गौटिया, गरीब कहात हस ?? बेजाकब्जा छोड़ दे, तैं अपन गांव के । चरिया परिया छोड़ तैं, रूख पेड़ छांव के । लालच बिन तैं वोट कर, आदमी छांट के । नेता नौकर तोर हे, तैं राख हांक के ।।

दाई के गोरस सही, धरती के पानी

दाई के गोरस सही, धरती के पानी । दाई ले बड़का हवय, धरती हा दानी ।। सहत हवय दूनो मनन, तोरे मनमानी । रख गोरस के लाज ला, कर मत नादानी ।। होगे छेदाछेद अब, धरती के छाती । कइसे बरही तेल बिन, जीवन के बाती ।। परत हवय गोहार सुन, अंतस मा तोरे । पानी ला खोजत हवस, गाँव-गली खोरे ।। रहिही जब जल स्रोत हा, रहिही तब पानी । तरिया नरवा बावली, नदिया बरदानी ।। पइसा के का टेस हे, पइसा ला पीबे । पइसा मा मिलही नही, तब कइसे जीबे ।।

हे स्वाभिमान के,दरकार

जचकी ले मरनी, लाख योजना, हे यार । फोकट-सस्ता मा, बाँटत तो हे, सरकार ।। ढिठ होगे तब ले, हमर गरीबी, के बात । सुरसा के मुँह कस, बाढ़त हावे, दिन रात ।। गाँव-गाँव घर-घर, दिखे कंगला, भरमार । कागज के घोड़ा, भागत दउड़त, हे झार ।। दोषी जनता हे, या दोषी हे, सरकार । दूनो मा ता हे, स्वाभिमान के, दरकार ।।

मनखे तैं नेक हो

जात-धरम, सबके हे, दुनिया के जीव मा । रंग-रूप, अलग-अलग, सब निर्जीव मा ।। जोड़ रखे, अपन धरम, धरती बर एक हो । देश एक, अपने कर, मनखे तैं नेक हो ।। 

लगही-लगही तब तो, गाँव हमर बढ़िया

//उड़ियाना-पद// लगही-लगही तब तो, गाँव हमर बढ़िया कान धरव ध्यान धरव, गोठ-बात मने भरव रखव-रखव साफ रखव, गाँव-गाँव तरिया ।। पानी के स्रोत रखव, माटी ला पोठ रखव जइसे के रखे रहिस, नंदलाल करिया ।। गाँव-गली चातर कर, लोभ-मोह ला झन धर बेजा कब्जा छोड़व, गाँव खार परिया ।। माथा ‘रमेश‘ हा धर, कहय दया अब तो कर गाय गरूवा बर दौ, थोड़-बहुत चरिया ।।

तीन छंद-कुण्डल-कुण्डलनि-कुण्डलियां

//कुण्डल// काम-बुता करव अपन, जांगर ला टोरे । देह-पान रखव बने, हाथ-गोड़ ला मोड़े ।। प्रकृति संग जुड़े रहव, प्रकृति पुरूष होके । बुता करब प्रकृति हमर, बइठव मत सोके ।। //कुण्डलनि // जांगर अपने टोर के, काम-बुता ला साज । देह-पान सुग्हर रहय, येही येखर राज ।। येही येखर राज, खेत मा फांदव नांगर । अन्न-धन्न अउ मान, बांटथे हमरे जांगर ।। //कुण्डलियां// अइठे-अइठे रहव मत, अपन पसीना ढार । लाख बिमारी के हवय, एकेठन उपचार ।। एकेठन उपचार, बनाही हमला मनखे । सुग्घर होही देह, काम करबो जब तनके ।। साहब बाबू होय, रहव मत बइठे-बइठे । अपने जांगर पेर, रहव मत अइठे-अइठे ।।

पानी जीवन आधार, जिंनगी पानी

पानी जीवन आधार, जिंनगी पानी । पानी हमरे बर आय, करेजा चानी ।। पानी बिन जग बेकार, जीव ना बाचे । जानत हे सब आदमी, बात हे साचे ।। बचा-बचा पानी कहत, चिहुर चिल्लाये । वाह वाहरे आदमी, कुछ ना  बचाये ।। काबर करथे आदमी, रोज नादानी । शहर-ष्श्हर अउ हर गाँव, एके कहानी ।। स्रोत बचाये ले इहां, बाचही पानी । कान खोल के गठियाव, गोठे सियानी ।। नदिया नरवा के रहे, बाचही पानी । तरिया खनवावव फेर, कर लौ सियानी ।। बोर भरोसा अब काम, चलय ना एको । भुइया सुख्खा हे आज, निटोरत देखो ।। बोर खने धुर्रा उड़य, मिलय ना पानी । हाल हवे बड़ बेहाल   कर लौ सियानी ।। -रमेश चौहान

दुई ढंग ले, होथे जग मा, काम-बुता

दुई ढंग ले, होथे जग मा, काम-बुता । हाथ-गोड़ ले, अउ माथा ले, मिले कुता ।। माथा चलथे, बइठे-बइठे, जेभ भरे । हाथ-गोड़ हा, देह-पान ला, स्वस्थ करे ।। दूनों मिल के, मनखे ला तो, पोठ करे । काया बनही, माया मिलही, गोड़ धरे । बइठइया मन, जांगर पेरव, एक घड़ी । जांगर वाले, धरव बुद्वि ला, जोड़ कड़ी ।।

सम्राट पृथ्‍वीराज चौहान (आल्‍हा धुन म गौरव गाथा)

सबले पहिली माथ नवावय, हाथ जोर के तोर गणेश । अपन वंश के गौरव गाथा, फेर सुनावत हवय ‘रमेश‘ ।। अपन देश अउ अपन धरम बर, जीना मरना जेखर काम । जब तक सूरज चंदा रहिथे, रहिथे अमर ओखरे नाम ।। पराक्रमी योद्धा बलिदानी, भारत के आखरी सम्राट । पृथ्वीराज अमर हावे जग, ऊँचा राखे अपन ललाट ।। जय हिन्दूपति जय दिल्लीपति, जय हो जय हो पृथ्वीराज । अद्भूत योद्धा तैं भारत के, तोरे ऊँपर सबला नाज ।। स्वाभिमान बर जीना मरना, जाने जेने एके काम । क्षत्रीय वर्ण चौहान कहाये, अग्नी वंशी जेखर नाम ।। आगी जइसे जेठ तिपे जब, अउ रहिस अंधियारी पाख । रहिस द्वादशी के तिथि जब, जनमे बालक पृथ्वीराज ।। कर्पूर देवी दाई जेखर, ददा रहिस सोमेश्वर राय । रहिस घात सुग्घर ओ लइका, सबके मन ला लेवय भाय ।। लइकापन मा शेर हराये, धरे बिना एको हथियार । बघवा जइसे तोरे ताकत, जाने तभे सकल संसार ।। रहे बछर ग्यारा के जब तैं, हाथ ददा के सिर ले जाय । अजमेर राज के ओ गद्दी, नान्हेपन ले तैं सिरजाय ।। अंगपाल दिल्ली के राजा, रिश्ता मा तो नाना तोर । ओखर पाछू दिल्ली गद्दी, अपन हाथ धर करे सजोर ।। एक संघरा दू-दू गद्दी, गढ़ दिल्ली अउ गढ़

हम बनबो, मनखे

भानु छंद हम बनबो, मनखे होके मनखे आज । हम जानब, कइसन हावय येखर राज । कहिथे गा, सबो देव-धामी येखर दास । सब तरसय, मनखे तन पाये बर खास ।।

सिन्धु छंद

नवा रद्दा चलव संगी हमन गढ़बो । डगर रेंगत सबो ढिलवा हमन चढ़बो ।। परता हवय जउन खेती हमन करबो । जउन कोठी हवय खाली हमन भरबो ।।

सही उमर मा बिहाव कर ले

भूख लगे मा खाना चाही, प्यास लगे  मा तो पानी । सही उमर मा बिहाव करले, जागे जब तोर जवानी ।। सही समय मा खातू-माटी, धान-पान ला तो चाही । खेत जरे मा बरसे पानी,  कइसे के सुकाल लाही । अपन गोड़ मा खड़ा होत ले,  आधा उमर पहागे गा। तोर जवानी ये चक्कर मा,  अपने अपन सिरागे गा ।। नवा जमाना के फेशन मा, लइका अपने ला माने । धरे जवानी सपना देखे, तभो उमर ला तैं ताने ।। दू पइसा हे तोर कमाई,  अउ-अउ के लालच जागे । येही चक्कर मा तो संगी,  तोर जवानी हा भागे ।। कुँवर-बोड़का बइठे-बइठे, कोन कहाये  सन्यासी । भीष्म प्रतिज्ञा कर राखे का, देखाथे जेन उदासी ।। -रमेश चौहान

कतका दुकला हे परे

अमृतध्वनि-कुण्डलियां कतका दुकला हे परे, दुल्हा मन के आज । पढ़े लिखे बाबू खिरत, आवत मोला लाज ।। आवत मोला, लाज बहुत हे, आज बतावत । दस नोनी मा, एके बाबू, पढ़ इतरावत ।। बाबू मन हा, पढ़े नई हे, नोनी अतका । बाबू मन ला, काम-बुता के, चिंता कतका ।। चिंता कतका आज हे, देखव सोच बिचार । टूरा पढ़ई छोड़थे, बारहवी के पार । बारहवी के पार, पढ़य ना टूरा जादा । पढ़े-लिखे बेगार, आज आधा ले जादा । मन मा अइसे सोच, पढ़य ना बाबू अतका । करथे कुछु भी काम, धरे हे चिंता कतका ।।

आज सुधरबो, भूल-चूक सब छोड़ के

देखा-देखी, अनदेखी सब जानथे । जी ले जांगर, बरपेली सब तानथे ।। होके मनखे, चलत हवे जस भेड़िया । मे-मे दिनभर, नरियाथे जस छेरिया । अंग्रेजी के, बोली-बतरस बोलथें । छत्तीसगढ़ी, हिन्दी ला बड़ ठोलथें ।। इज्जत अपने, अपन हाथ धर खोत हें । का अब कहिबे, काँटा ला खुद बोत हें ।। गाँव देश के, गलती केवल देखथें । बैरी बानिक, आँखी निटोर सेकथें ।। दूसर सुधरय, इच्छा सबझन राखथें । गोठ अपन के, अधरे अधर म फाँकथें ।। चाट-चाट के, खावय दूसर के जुठा । झूठ-मूठ के, शान-शौकत धरे मुठा ।। जागव-जागव, देखव-देखव गाँव ला । स्वाभिमान के, अपने सुग्घर छाँव ला ।। आज सुधरबो, भूल-चूक सब छोड़ के । बंधे खूँटा, सकरी-साकर तोड़ के । देश गाँव के, रहन-सहन सब पोठ हे । गाँठ बाँधबो, येही सिरतुन गोठ हे ं।।

बोरे-बासी छोड़ के

बोरे-बासी छोड़ के, अदर-कचर तैं खात । दूध-दही ला छोड़ के, भठ्ठी कोती जात ।। भठ्ठी कोती जात, धरे चखना तैं बोजे । नो हय कभूू कभार, होत रहिथे ये रोजे । सुन तो अरे रमेश, काम ए सत्‍यानाशी । सुनस नहीं कुछ गोठ, खाय बर बोरे-बासी ।।

अंग्रेजी

अंग्रेजी के स्कूल हे, गली-गली मा आज । अइसन अतका स्कूल तो, रहिस न उन्खर राज । रहिस न उन्थर राज, चोचला ये भाषा मा । फँसे हवे सब आज, नौकरी के झासा मा । रोजगार के नाम, पढ़े लइका अंग्रेजी । तभो बेरोजगार, बढ़त हावे अंग्रेजी ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

नानपन ले काम करव

आज करबे काल पाबे, जानथे सब कोय । डोलथे जब हाथ गोड़े, जिंदगी तब होय ।। काम सुग्घर दाम सुग्घर, मांग लौ दमदार । काम घिनहा दाम घिनहा, हाथ धर मन मार ।। डोकरापन पोठ होथे, ढोय पहिली काम । नानपन ले काम करके, पोठ राखे चाम ।। नानपन मा जेन मनखे, लात राखे तान । भोगही ओ काल जूहर, बात पक्का मान ।। नानपन ले काम कर लौ, देह होही पोठ । आज के ये तोर सुख मा, काल दिखही खोट ।। कान अपने खोल सुन लौ, आज दाई बाप । खेल खेलय तोर लइका, मेहनत ला नाप ।। देह बर तो काम जरुरी, बात पक्का मान । खेल हा तो काम ओखर, गोठ सिरतुन जान ।। तोर पढ़ई काम भर ले, बुद्धि होही पोठ । काम बिन ये देह तोरे, होहि कइसे रोठ ।। खेल मन भर नानपन मा, खोर अँगना झाक । रात दिन तैं फोर आँखी, स्क्रीन ला मत ताक ।। नानपन ले जेन जानय, होय कइसे काम । झेल पीरा आज ओ तो, काल करथे नाम ।। -रमेश चौहान

चल तरिया जाबो

चल तरिया जाबो, खूब नहाबो, तउड-तउड़ के संगी । खूब मजा पाबो, दम देखाबो, नो हय काम लफंगी ।। तउड़े ले होथे, काया पोठे, तबियत सुग्घर रहिथे । पाछू सुख पाथे, तउड़ नहाथे, आज झेल जे सहिथे ।। जब तरिया जाबे, संगी पाबे, चार बात बतियाबे । गोठ गोठियाबे, मया बढ़ाबे, पीरा अपन सुनाबे ।। दूसर के पीरा, सुनबे हीरा, मनखे बने कहाबे । घर छोड़ नहानी, करत सियानी, तरिया जभे नहाबे ।। हे लाख फायदा, देख कायदा, धरती बर तरिया के । धरती के पानी, धरे जवानी, बड़ झूमे छरिया के ।। पानी के केबल, वाटर लेबल, तरिया बने बनाथे । बाते ला मानव, ये गुण जानव, कहिदव तरिया भाथे ।।

जल्दी उठ ले

मुँहझुंझुल उठ ले,  जल्दी पुट ले,  खटिया छोड़े,  खुशी धरे । हे अनमोल दवा, सुबे  के हवा, पाबे फोकट, बाँह भरे ।। रेंग कोस भर गा, छोड़व डर गा, रहिही तबियत, तोर बने । डाॅक्टर के चक्कर, करथे फक्कड़, पइसा-कौड़ी, लेत हने ।। काबर रतिहा ले, तैं बतिया ले, सुते न जल्दी, लेट  करे । मोबाइल धर के, गाड़ा भर के, फोकट-फोकट, चेट करे ।। जे जल्दी सुतही, जल्दी उठही, पक्का मानव, बात खरा । जाने हे जम्मा, तभो निकम्मा, काबर रहिथे, गोठ ढरा ।। हे नवा जमाना, नवा बहाना, गोठ नवा भर, इहां हवे । हे धरती जुन्ना, बाते गुन्ना, जेखर ले तो, देह हवे ।। माटी मा माटी, बनके साथी, जेने रहिथे,  स्वस्थ हवे। करथे हैरानी, धरे जवानी, अइसन मनखे, बने हवे ।। -रमेश चौहान

सपना मा आवत हे रे

//गीत// टूरा- खुल्ला चुन्दीवाली टूरी, सपना मा आवत हे रे । मोरै तन मन के बादर मा, बदरी बन छावत हे रे ।। टूरी- लंबा चुन्दी वाले टूरा, सपना मा आवत हे रे । मोरे तन मन के बदरी मा, बादर बन छावत हे रे ।। टूरा- चढ़े खोंजरारी चुन्दी हा, माथा मा जब-जब ओखर । घेरी-बेरी हाथ हटाये, लगे चेहरा तब चोखर । झमझम बिजली चमकय जइसे, चुन्दी चमकावत हे रे । खुल्ला चुन्दीवाली टूरी, सपना मा आवत हे रे । .टूरी- फुरुर-फुरुर पुरवाही जइसे, झुलुप केस हा बोहावय । जेने देखय अइसन बैरी, ओखर बर तो मोहावय । चिक्कन-चांदन गाल गुलाबी, घात नशा बगरावत हे रे । लंबा चुन्दी वाले टूरा, सपना मा आवत हे रे । टूरा- खुल्ला चुन्दीवाली टूरी, सपना मा आवत हे रे । मोरै तन मन के बादर मा, बदरी बन छावत हे रे ।। टूरी- लंबा चुन्दी वाले टूरा, सपना मा आवत हे रे । मोरे तन मन के बदरी मा, बादर बन छावत हे रे ।।

हवय बिमारी शुगर के

कटय बिमारी शुगर के, करू करेला रांध । रोटी भर खाना हवय, अपन पेट ला बांध ।। अपन पेट ला,  बांध रखे हँव, लालच छोड़े । गुरतुर-गुरतुर, स्वाद चिखे बर, मुँह ला मोड़े ।। नीम बेल अउ, तुलसी पत्ता, हे गुणकारी । रोज बिहनिया, दउड़े ले तो, कटय बिमारी ।। -रमेश चौहान

ये राजा मोरे

//गीत// (नायिका बर एकल गीत)  नायक वर्णन ये राजा मोरे, आँखी के तोरे, करिया-करिया काजर । लागत हे मोला, आँखी मा तोरे, हवय मया के सागर ।। आँखी-आँखी के, ये वोली बतरस, लागय गुरतुर आगर ।। एक कान के, सुग्घर बाली, अउ अँगठा के छल्ला । जब-जब तोला, देखँव राजा, होथे मन मा हल्ला ।। तोरे दाढ़ी के, ये करिया चुन्दी, लागय जइसे बादर । ये राजा मोरे, तोरे आँखी के, करिया-करिया काजर ।। आधा बाही, वाले कुरता, तोला अब्बड़ सोहे । खुल्ला-खुल्ला, तोर भुजा ये, मोला अब्बड़ मोहे ।। दूनों बाँह के, तोरे गोदना, मोला जलाय काबर । ये राजा मोरे, तोरे आँखी के, करिया-करिया काजर ।।

बनिहार

//बनिहार// आज जेला  देखव तेने हा बनिहार के गुण गावत नई अघावत हे चारोकोती आँखी मा जउन कुछ दिखत हे बनिहार के पसीना मा सनाय हे काली मोर गाँव के दाऊ कहत रहिस काली जेन बनिहार हमर पाँव परत रहिस आज ओखर पाँव परे ला होगे हे सालेमन के ओहू आज लिखिस "मजदूर दिवस की शुभकामना"

पीरा होथे देख के

पीरा होथे देख के, टूरा मन ला आज । कतको टूरा गाँव के, मरय न एको लाज । मरय न एको लाज, छोड़ के पढ़ई-लिखई । मानय बड़का काम, मात्र हीरो कस दिखई ।। काटय ओला आज, एक फेशन के कीरा । पाछू हे हर बात, ऐखरे हे बड़ पीरा ।।

छत्तीसगढ़ी काव्य शिल्प -छंद

छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ प्रांत की मातृभाषा एवं राज भाषा है । श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘1 लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परम्परा का प्रारम्भ हो चुका था ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखयें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापी विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं । छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है जिस भाषा का व्याकरण हिन्दी के पूर्व रचित है ।  जिस छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ ‘भानु‘ ने हिन्दी को ‘छन्द्र प्रभाकर‘ एवं काव्य प्रभाकर भेंट किये हों वहां के साहित्य में छंद का स्वर निश्चित ध्वनित होगा । छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें । भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचिन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंष, खड़ी बोली से होते हुये आज के हिन्दी ए

किसीनी के पीरा

//किसानी के पीरा// खेत पार मा कुंदरा, चैतू रखे बनाय । चौबीसो घंटा अपन, वो हर इहें खपाय ।। हरियर हरियर चना ह गहिदे । जेमा गाँव के गरूवा पइधे हट-हट हइरे-हइरे हाँके । दउड़-दउड़ के चैतू बाँके गरूवा हाकत लहुटत देखय । दल के दल बेंदरा सरेखय आनी-बानी गारी देवय । अपने मुँह के लाहो लेवय हाँफत-हाँफत चैतू बइठे । अपने अपन गजब के अइठे बड़बड़ाय वो बइहा जइसे । रोक-छेक अब होही कइसे दू इक्कड़ के खेती हमरे । कइसे के अब जावय समरे कोनो बांधय न गाय-गरूवा । सबके होगे हरही-हरहा खूब बेंदरा लाहो लेवय । रउन्द-रउन्द खेत ल खेवय कइसे पाबो बिजहा-भतहा । खेती-पाती लागय रटहा ओही बेरा पहटिया, आइस चैतू तीर । राम-राम दूनों कहिन, बइठे एके तीर ।।1।। चैतू गुस्सा देख पहटिया । सोचय काबर बरे रहटिया पूछत हवय पहटिया ओला । का होगा हे आजे तोला कइसे आने तैं हा लागत । काबर तैं बने नई भाखत तब चैतू हर तो बोलय । अपने मन के भड़ास खोलय भोगत हन हम तुहर पाप ला । अउ गरूवा के लगे श्राप ला गरूवा ला तुमन छेकव नही । खेती-पाती ल देखव नही देखव देखव हमर हाल ला । गाय-गरूवा के ये चाल ल

अइसन हे पढ़ई

पास फेल के स्कूल मा, होगे खेल तमाम । जम्मा जम्मा पास हे, कहां फेल के काम ।। कहां फेल के काम, आज के अइसन पढ़ई । कागज ले हे काम, करब का अब हम कढ़ई ।। अव्वल हवय "रमेश", पढ़े ना कभू ठेल के । फरक कहां हे आज, इहां तो पास फेल के ।। -रमेश चौहान

जागव जागव हिन्दू

--मंजुतिलका छंद-- जागव जागव हिन्दू, रहव न उदास । देश हवय तुहरे ले, करव विश्वास ।। जतन देश के करना, धर्म हे नेक । ऊँच नीच ला छोड़व, रहव सब एक ।। अलग अपन ला काबर, करत हस आज । झेल सबो के सहिबो, तब ना समाज ।। काली के ओ गलती, लेबो सुधार । जोत एकता के धर, छोड़व उधार  ।। --अरूण छंद-- देश बर, काम कर, छोड़ अभिमान ला । जात के, पात के, मेट अपमान ला ।। एक हो, नेक हो, गलती सुधार के । मिल गला, कर भला, गलती बिसार के ।। ऊँच के, नीच के, आखर उखाड़ दौ । हाथ दौ, साथ दौं, परती उजाड़ दौ ।। हाथ के, गोड़ के, मेल ले देह हे । ऐहु मा, ओहु मा, बने जब नेह हे ।।

कई कई हे पंथ

कई कई हे पंथ, सनातन बांटत । हिन्दू-हिन्दू बांट, धरम ला काटत ।। रावण कस विद्वान, इहां ना बाचय । सबो बवन्डर झेल, सनातन साचय । धरम जम्मा धरे हावे प्रतिक एक । सबो अपने अपन ला तो कहे नेक ।। बनाये मठ गड़ाये खम्ब साकार । तभो कहिथे इहां मंदिर हवे बेकार ।।

मया मा तोरे

तोर आँखी के, ये गुरतुर बोली । चुपे-चुप करथे, जब़ हँसी ठिठोली । देह धरती मा, मन उड़े अगासा । मया मा तोरे, जीये के आसा ।।

दू-चारठन दोहा

अपन हाथ के मइल तो, नेता मन ला जान । नेता मन के खोट ला, अपने तैं हा मान ।। दोष निकालब कोखरो, सबले सस्ता काम । अपन दोष ला देखना, जग के दुश्कर काम ।। नियम-धियम कानून ला, गरीबहा बर तान । हाथ गोड़ ला बांध ले, दिखगय अब धनवान ।। दे हस सामाजिक भवन, जात-पात के नाम । वोट बैंक के छोड़ के, आही कोने काम ।। अपन मया दुलार भरे, धरे हँवव मैं रंग । तोर मया ला पाय बर, मन मा मोर उमंग ।। बोरे बासी छोड़ के, अदर-कचर तैं खात । दूध-दही छोड़ के, भठ्ठी कोती जात ।। आँखी आँखी के गोठ मा, आँखी के हे दोष । दोष करेजा के नही, तभो हरागे होश ।। मन मा कुछु जब ठानबे, तब तो होही काम । मन मा भुसभुस होय ले, मिलथे कहां मुकाम ।। सारी-सारा साढ़हू, आज सरग के धाम । कका-बड़ा परिवार ले, हमला कोने काम ।।

भभकत आगी ला जल्दी ले बुतोवव

छत्तीस प्रकार सोच धरे छत्तीस प्रकार के मनखे छत्तीसगढ़ के संगे-संग हमर देश मा रहिथे जइसे कोनो फूल के माला मा रिकिम-रिकिम के फूल एक संग गुथाये होवय । हमर देश के छाती हा घातेच चाकर हे जेमा समा जाथे आनी-बानी के भाशा-बोली अउ आनी-बानी के सोच वाले मनखे । फेर अभी-अभी धुँवा आवत हे आगी सुलगत हे भीतर-बाहिर अपन-बिरान तोर-मोर के कचरा मा कोनो लुकी डार दे हे । दउड़व-दउड़व अपन सोच-विचार के हउला-डेचकी धर के समता के पानी भर के भभकत आगी ला जल्दी ले बुतोवव ।

भगतन, श्रद्धा ला चढ़ात हे

एती-तेती चारो कोती, ढोलक मादर संग, मंदिर-मंदिर द्वारे-द्वारे, जस हा सुनात हे । चुन्दी छरियाये झूपे, कोनो बगियाये झूपे, कोनो-कोनो साट बर, हाथ ला लमात हे ।। दाई के भगत सबो, डंडासरन गिरय अपन-अपन दुख, दाई ला सुनात हे । फूल-पान नरियर, चुरी-फिता लुगरा, संगे-संग भगतन, श्रद्धा ला चढ़ात हे ।।

‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘

श्री केदारनाथ अग्रवाल के कविता ‘चन्द्रगहना से लौटती बेर‘ के आधार मा छत्तीसगढ़ी कविता - ‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘ देख आयेंव मैं गांव अब देखत हँव अपन चारो कोती खेत के मेढ़ मा बइठे-बइठे बीता भर बठवा चना मुड़ मा पागा बांधे छोटे-छोटे गुलाबी फूल के सजे-धजे खड़े हे । संगे-संगे खड़े हे बीच-बीच मा अरसी पातर-दुबर कनिहा ला डोलावत मुड़ी मा नीला-नीला फूल कहत हे कोनो तो मोला छुवय कोनो तो मोला देखय मन भर अपन सरबस दान कर देहूॅ । सरसों के झन पूछ एकदम सियान होगे हे हाथ पीला करके बिहाव मड़वा मा फाग गावत फागुन आगे हे तइसे लगथे । अइसे लगत हे जानो-मानो कोनो स्वयंबर चलत हे प्रकृति के मया के अचरा डोलत हे सुन-सान ये खेत मा षहर-पहर से दूरिहा मया के मयारू भुईंया कतका सुग्घर हे । गोड़ तरी हे तरिया जेमा लहरा घेरी-बेरी आवत जावत हे अउ लहरावत हे पानी तरी जागे कांदी कचरा एक चांदी के बड़का असन खम्भा आँखी मा चकमकावत हे । तीरे-तीरे कतका कन पथरा चुपे-चुप पानी पीयत हे कोन जनी पियास कब बुछाही । चुप-चाप खड़े कोकड़ा आधा गोड़ पानी मा डारे एती-तेती जावत मछरी ला देखते ध्यान छोड़ झट कन चोंच मा

छत्तीसगढ़ी श्लोक (अनुष्टुप छंद)

1. दुनिया ला बनाये तैं, कहाये भगवान गा । दुनिया ला चलाये तैं, मनखे बदनाम गा ।। 2. पत्ता डोलय ना एको, मरजी बिन तोर तो । अपन मन के धुर्रा, उड़ावय न थोरको ।। 3. तहीं हवस काया के, सब मा एक प्राण गा । तहीं हवस माया के, अकेल्ला सुजान गा ।। 4. सबकुछ ह तो तोरे, हमर एक तो तहीं । तैं पतंग के डोरी, हम पतंग के सहीं ।। 5. सब मा तोर माया हे, तोला जउन भात हे । कहां हमर ये बेरा, कुछु अवकात हे ।। 6. मनखे मनखे माने, मनखे मनखे सबो । मनखेपन के देदे, प्रभु तैं वरदान गो ।।

धरे उदासी बोलय जमुना घाट

धरे उदासी बोलय जमुना घाट । कती हवय अब छलिया तोरे बाट ।। नाग कालिया कई-कई ठन आज । मोरे पानी मा करत हवय राज ।। कहां लुका गे बासुरीवाला मोर । कहां लुका गे तैं मोहन चितचोर ।। घाट घठौंदा मोर भटत हे जात । काबर अब तैं इहां नई तो आत ।।

पइसा (जोगी रा-सा-ररा-रा)

जोगी रा सा रा रा जोगी रा सा रा रा पइसा पूजा पाठ कहाथे, पइसा हा भगवान । पइसा हरियर-हरियर चारा, चरत हवय इंसान ।।जोगी रा सा रा रा पइसा ले डौकी लइका हे, पइसा ले परिवार । पइसे ले दुनिया हे तोरे, पइसा बिन बेकार ।।जोगी रा सा रा रा मइल हाथ के पइसा होथे, कहि-कहि मरय सियान । बात समझ ना पाइस लइका, मारत रहिगे शान ।।जोगी रा सा रा रा कान-बुता मा घोर पसीना, पइसा आही हाथ । करे करम के पूजा-पाठे, मिलय भाग्य के साथ ।।जोगी रा सा रा रा फोकट मा सरकार बांटथे, अपन करे बर नाम । लूट छूट के रीत छोड़ दे, हमला चाही काम ।।जोगी रा सा रा रा

ददा (भुजंगप्रयात छंद, अतुकांत)

कहां देवता हे इहां कोन जाने । न जाने दिखे ओ ह कोने प्रकारे ।। इहां देवता हा करे का बुता हे । सबो प्रश्न के तो जवाबे ददा हे ।। ददा मोरे ब्रम्हा देह मोरे बनाये । मुँहे डार कौरा ददा बिष्णु मोरे ।। शिवे होय के दोष ला मोर मांजे । ददा हा धरा के त्रिदेवा कहाये ।। कभू देख पाये न आँसू ल मोरे । मने मोर चाहे जऊने ददा दै ।। खुदे के मने ला ददा हा दबाये । जिये हे मरे हे ददा मोर सेती ।। भरे हाथ कोरा  दिने रात मोला । खुदे संग खवाये धरे हाथ कौरा ।। खुदे पीठ चढ़ाये ददा होय घोड़ा । धरे हाथ संगी बने हे ददा हा  ।।

मया(भुजंगप्रयात छंद, अतुकांत)

                मया (भुजंगप्रयात छंद, अतुकांत) कहां देह के थोरको मोल होथे । मया के बिना देह हाड़ा निगोड़ा ।। मया के मया ले मया देह होगे । मया साँस मोरे मया प्राण मोरे ।। करे हे मया हा मया मा मया रे । मया के मया मा महूँ हा मया गा ।। मया ला मया ले करे मैं निहोरा । मया धार ड़ोंगा मया ड़ोंगहारे ।। मया मोर बोली मया मोर हाँसी । मया भूख मोरे मया प्यास मोरे ।। मया भूख के तो मया हा चबेना । पियासे मया के मया मोर पानी ।। मया मोर आँखी मया मोर काने । मया हाथ मोरे मया गोड़ मोरे ।। मया साँस मोरे मया हे करेजा । मया जिंदगानी मया मुक्ति रद्दा ।।

पइसा के पाछू बइहा झन तो होव

पइसे के पाछू कभू, बइहा झन तो होव । चलय हमर परिवार हा, अतका धाने बोव । अतका धाने, बोव सबो झन,  भूख मरी मत । पइसा पाछू, होके बइहा, हम अति करि मत ।। दुनिया ले तो, हमला जाना, नगरा जइसे । आखिर बेरा, काम न आवय, तोरे पइसे ।।

करना चाही

करना चाही सब कहे, करथे के झन देख । नियम-धियम सिद्धांत मा, खोजत हे मिन-मेख ।। खोजत हे मिन-मेख इहां सब, जी चोराये । चलत हवय जब, चंदा-सूरज, सब बंधाये ।। चिरई-चिरगुन, मानत हावे, हाही-माही । सोचत हावे, कहि-कहि मनखे, करना चाही ।

आगी झन बारँव इहां

आगी झन बारँव इहाँ, इहाँ सरग के ठाँव । छत्तीसगढ़ नाम हवय, सरग दुवारी छाँव ।। सरग दुवारी, छाँव निहारत, दुनिया आथे । आथे जेने,  इही ठउर मा, बड़ सुख पाथे । हमरे माटी, चुपरय छाती, कहि पालागी । अपन पराया,  कहि कहि के झन, बारँव आगी ।।

एक दर्जन दोहा

1. दोष निकालब कोखरो, सबले सस्ता काम । अपन दोष ला देखना, जग के दुश्कर काम ।। 2. अपन हाथ के मइल तो, नेता मन ला जान । नेता मन के खोट ला, अपने तैं हा मान ।। 3. मुगल आंग्ल मन भाग गे, भागे ना वो सोच । संस्कृति अउ संस्कार मा, करथें रोज खरोच ।। 4. अपन देश के बात ला, धरे न शिक्षा नीति । लोकतंत्र के राज मा, हे अंग्रेजी रीति । 5. कोनो फोकट मा घला, गाय रखय ना आज । गाय ल माता जे कहय, आय न ओला लाज ।। 6. पानी चाही काल बर, तरिया कुँआ बचाव । बोर खने के सोच मा, तारा अभे लगाव ।। 7. तरिया नरवा गाँव के, गंदा हावे आज । पानी बचाव योजना, मरत हवे गा लाज ।। 8. रद्दा पूछत मैं थकँव, पता बतावय कोन । लइका हे ये शहरिया, चुप्पा देखय मोन । । 9. बाबू मोरे कम पढ़े, कइसे होय बिहाव । नोनी मन जादा पढ़े, बहू कहां ले आय ।। 10. सीख सबो झन बाँटथे, धरय न कोनो कान । गोठ आन के छोट हे, अपने भर ला मान ।। 11. दारु बोकरा आज तो, ठाढ़ सरग के धाम । खीर पुरी ला छोड़ तैं, ओखर ले का काम ।। 12. काम नाम ला हे गढ़े, नाम गढ़े ना काम । काम बुता ले काम हे, परे रहन दे नाम ।।

हाथ बर कामे मांगव

मांगय अब सरकार ले, केवल हाथ म काम । येमा-वोमा छूट ले, हमर चलय ना काम । हमर चलय ना काम, हाथ होवय जब खाली । बिना बुता अउ काम, हमर हालत हे माली ।। सुनलव कहय रमेश, कटोरा खूंटी टांगव । छोड़व फोकट छूट, हाथ बर कामे मांगव ।।

नई चाही कुछ फोकट

फोकट मा तो  खाय बर, छोड़व यार मितान । हमर आड़ मा देश के, होत हवय नुकसान ।। होत हवय नुकसान, देश के नेता मन ले । फोकट के हर एक, योजना ला तैं गन ले ।। देथें पइसा चार, हजारों खाथें टोकत । हमला चाही काम, नई चाही कुछ फोकट ।।

अइसे कोनो रद्दा खोजव, जुरमिल रेंगी साथ

मोटर गाड़ी के आए ले, घोड़ा दिखय न एक । मनखे केवल अपन बाढ़ ला, समझत हावे नेक ।। जोते-फांदे अब टेक्टर मा, नांगर गे नंदाय । बइला-भइसा कोन पोसही, काला गाय ह भाय ।। खातू-माटी अतका डारे, चिरई मन नंदात । खेत-खार मा महुरा डारे, अपने करे अघात ।। आघू हमला बढ़ना हावे, केवल धरे मशीन । मन मा अइसन सोच रहे ले, धरती जाही छीन ।। जीव एक दूसर के साथी, रचे हवय भगवान । मनखे एखर संरक्षक हे, सबले बड़े महान ।। बड़े मनन घुरवा होथे, कहिथे मनखे जात । झेल झपेटा जेने सहिथे, मांगय नही भात ।। अइसे कोनो रद्दा खोजव, जुरमिल रेंगी साथ । जीव पोसवा घर के बाचय, धर के हमरे हाथ ।।

गाय अब केती जाही

टेक्टर चाही खेत बर, झट्टे होही काम । नांगर बइला छोड़ दे, कहत हवय विज्ञान । कहत हवय विज्ञान, धरम प्रगती के बाधक । देवय कोन जवाब, मौन हे धरमी साधक । पूछत हवे "रमेश", गाय अब केती जाही । बइला ला सब छोड़, कहय जब टेक्टर चाही ।। -रमेश चौहान

पांचठन दोहा

 कदर छोड़ परिवार के, अपने मा बउराय । अपन पेट अउ देह के, चिंता मा दुबराय ।। अपन गांव के गोठ अउ, अपन घर के भात । जिनगी के पानी हवा, जिनगी के जज्बात ।। काम नाम ला हे गढ़े, नाम गढ़े ना काम । काम बुता ले काम हे, परे रहन दे नाम ।। दारु बोकरा आज तो, ठाढ़ सरग के धाम । खीर पुरी ला छोड़ तैं, ओखर ले का काम ।। सीख सबो झन बाँटथे, धरय न कोनो कान । गोठ आन के छोट हे, अपने भर ला मान ।।

छंद चालीसा (छत्तीसगढ़ी छंद के कोठी)

"छंद चालीसा" (छत्तीसगढ़ी छंद के कोठी) । http://www.gurturgoth.com/chhand-chalisa/ ये लिंक म देख सकत हव ये किताब मा 40 प्रकार के छंद के नियम-धरम ला उदाहरण सहित समझाये के कोशिश करे हंव ।  येखर संगे-संग कई प्रकार के कविता कई ठन विषय मा पढ़े बर आप ला मिलही । येला पढ़के अपन प्रतिक्रिया स्वरूप आर्शीवाद खच्चित देहू 

मोर दूसर ब्लॉग