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कतका झन देखे हें-

पीरा होथे देख के

पीरा होथे देख के, टूरा मन ला आज । कतको टूरा गाँव के, मरय न एको लाज । मरय न एको लाज, छोड़ के पढ़ई-लिखई । मानय बड़का काम, मात्र हीरो कस दिखई ।। काटय ओला आज, एक फेशन के कीरा । पाछू हे हर बात, ऐखरे हे बड़ पीरा ।।

छत्तीसगढ़ी काव्य शिल्प -छंद

छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ प्रांत की मातृभाषा एवं राज भाषा है । श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘1 लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परम्परा का प्रारम्भ हो चुका था ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखयें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापी विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं । छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है जिस भाषा का व्याकरण हिन्दी के पूर्व रचित है ।  जिस छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ ‘भानु‘ ने हिन्दी को ‘छन्द्र प्रभाकर‘ एवं काव्य प्रभाकर भेंट किये हों वहां के साहित्य में छंद का स्वर निश्चित ध्वनित होगा । छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें । भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचिन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंष, खड़ी बोली से होते हुये आज के हिन्दी ए

किसीनी के पीरा

//किसानी के पीरा// खेत पार मा कुंदरा, चैतू रखे बनाय । चौबीसो घंटा अपन, वो हर इहें खपाय ।। हरियर हरियर चना ह गहिदे । जेमा गाँव के गरूवा पइधे हट-हट हइरे-हइरे हाँके । दउड़-दउड़ के चैतू बाँके गरूवा हाकत लहुटत देखय । दल के दल बेंदरा सरेखय आनी-बानी गारी देवय । अपने मुँह के लाहो लेवय हाँफत-हाँफत चैतू बइठे । अपने अपन गजब के अइठे बड़बड़ाय वो बइहा जइसे । रोक-छेक अब होही कइसे दू इक्कड़ के खेती हमरे । कइसे के अब जावय समरे कोनो बांधय न गाय-गरूवा । सबके होगे हरही-हरहा खूब बेंदरा लाहो लेवय । रउन्द-रउन्द खेत ल खेवय कइसे पाबो बिजहा-भतहा । खेती-पाती लागय रटहा ओही बेरा पहटिया, आइस चैतू तीर । राम-राम दूनों कहिन, बइठे एके तीर ।।1।। चैतू गुस्सा देख पहटिया । सोचय काबर बरे रहटिया पूछत हवय पहटिया ओला । का होगा हे आजे तोला कइसे आने तैं हा लागत । काबर तैं बने नई भाखत तब चैतू हर तो बोलय । अपने मन के भड़ास खोलय भोगत हन हम तुहर पाप ला । अउ गरूवा के लगे श्राप ला गरूवा ला तुमन छेकव नही । खेती-पाती ल देखव नही देखव देखव हमर हाल ला । गाय-गरूवा के ये चाल ल

अइसन हे पढ़ई

पास फेल के स्कूल मा, होगे खेल तमाम । जम्मा जम्मा पास हे, कहां फेल के काम ।। कहां फेल के काम, आज के अइसन पढ़ई । कागज ले हे काम, करब का अब हम कढ़ई ।। अव्वल हवय "रमेश", पढ़े ना कभू ठेल के । फरक कहां हे आज, इहां तो पास फेल के ।। -रमेश चौहान

जागव जागव हिन्दू

--मंजुतिलका छंद-- जागव जागव हिन्दू, रहव न उदास । देश हवय तुहरे ले, करव विश्वास ।। जतन देश के करना, धर्म हे नेक । ऊँच नीच ला छोड़व, रहव सब एक ।। अलग अपन ला काबर, करत हस आज । झेल सबो के सहिबो, तब ना समाज ।। काली के ओ गलती, लेबो सुधार । जोत एकता के धर, छोड़व उधार  ।। --अरूण छंद-- देश बर, काम कर, छोड़ अभिमान ला । जात के, पात के, मेट अपमान ला ।। एक हो, नेक हो, गलती सुधार के । मिल गला, कर भला, गलती बिसार के ।। ऊँच के, नीच के, आखर उखाड़ दौ । हाथ दौ, साथ दौं, परती उजाड़ दौ ।। हाथ के, गोड़ के, मेल ले देह हे । ऐहु मा, ओहु मा, बने जब नेह हे ।।

कई कई हे पंथ

कई कई हे पंथ, सनातन बांटत । हिन्दू-हिन्दू बांट, धरम ला काटत ।। रावण कस विद्वान, इहां ना बाचय । सबो बवन्डर झेल, सनातन साचय । धरम जम्मा धरे हावे प्रतिक एक । सबो अपने अपन ला तो कहे नेक ।। बनाये मठ गड़ाये खम्ब साकार । तभो कहिथे इहां मंदिर हवे बेकार ।।

मया मा तोरे

तोर आँखी के, ये गुरतुर बोली । चुपे-चुप करथे, जब़ हँसी ठिठोली । देह धरती मा, मन उड़े अगासा । मया मा तोरे, जीये के आसा ।।

दू-चारठन दोहा

अपन हाथ के मइल तो, नेता मन ला जान । नेता मन के खोट ला, अपने तैं हा मान ।। दोष निकालब कोखरो, सबले सस्ता काम । अपन दोष ला देखना, जग के दुश्कर काम ।। नियम-धियम कानून ला, गरीबहा बर तान । हाथ गोड़ ला बांध ले, दिखगय अब धनवान ।। दे हस सामाजिक भवन, जात-पात के नाम । वोट बैंक के छोड़ के, आही कोने काम ।। अपन मया दुलार भरे, धरे हँवव मैं रंग । तोर मया ला पाय बर, मन मा मोर उमंग ।। बोरे बासी छोड़ के, अदर-कचर तैं खात । दूध-दही छोड़ के, भठ्ठी कोती जात ।। आँखी आँखी के गोठ मा, आँखी के हे दोष । दोष करेजा के नही, तभो हरागे होश ।। मन मा कुछु जब ठानबे, तब तो होही काम । मन मा भुसभुस होय ले, मिलथे कहां मुकाम ।। सारी-सारा साढ़हू, आज सरग के धाम । कका-बड़ा परिवार ले, हमला कोने काम ।।

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