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जनवरी, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

गजल- गाँव का कम हे शहर ले

गजल- गाँव का कम हे शहर ले (बहर-2122   2122) गाँव का कम हे शहर ले देख ले चारों डहर ले ऊँहा के सुविधा इँहो हे आँनलाइन के पहर ले हे गली पक्की सड़क हा तैं हा बहिरी धर बहर ले ये कलेचुप तो अलग हे शोरगुल के ओ कहर ले खेत हरियर खार हरियर बचे हे करिया जहर ले ऊँचपुर कुरिया तने हे देख के तैं हा ठहर ले -रमेश चौहान

मनखे होय म शक हे

नवगीत चाल-चलन ला तोरे देखे  मनखे होय म शक हे टंगिया के डर मा थर-थर काँपे धरती के रूख-राई कभू कान दे के सुने हवस रूख राई के करलाई टंगिया के मार सही के रूखवा के तन धक हे नदिया-नरवा रोवत रहिथे अपने मुँड़ ला ढांके मोरे कोरा सुन्ना काबर तीर-तार ला झांके मोर देह मा चिखला पाटे ओखर कुरिया झक हे मौनी बाबा जइसे पर्वत चुपे-चाप तो बइठे हे ओखर छाती कोदो दरत मनखे काबर अइठे हे फोड़ फटाका टोर रचाका ओखर छाती फक हे हवा घला हा तड़फत हावे करिया कुहरा मा फँस के कोने ओखर पीरा देखय करिया कुहरा मा धँस के पाप कोखरो भोगय कोनो ये कइसन के लक हे -रमेशकुमार सिंह चौहान

कब जाही दूरदिन

गुगल से सौजन्य झक सफेद खरगोश असन आही का कोनो दिन घेरी-घेरी साबुन ले धोवत हँव सपना कोन जनी येहू हा होही के नहीं अपना आँखी के पाँखी दउड़-दउड़ करत हे खोजबिन खरे मझनिया के सूरूज ठाढ़े-ठाढ़े सोचय ढलती जवानी मा लइकापन हा नोचय चाउर-दार के झमेला गड़ावत हे आलपिन धरती ले अगास तक उत्ती ले बुडती सपना समाये वाह रे मोरे मन कोनो मेर नई अघाये सिखौना मिठ्ठू कस रटत हवय कब जाही दूरदिन -रमेश चौहान

सब संग हमारी मितानी हे

धनिया जइसे हर हाथ म गमकत सब संग हमारी मितानी हे छत्तीस राग के संगत खैरागढ़ चिन्हारी हे महानदी शिवनाथ खारून अरपा पैरी मनीहारी हे उदभट रद्दा कांटा-खुटी भरे हमर जवानी हे देह पसीना के नदिया नरवा मन धरम-करम के गंगा जमुना चाहे सुरूज टघलय के बादर फूटय थिर-थिरावट हा हमर पहुना चाल-चलन पइसा ले बड़का अइसे गोठ सियानी हे -रमेश चौहान

ये अकरस के पानी

ये अकरस के पानी (सार छंद) फोटो स्रोत-गुगल से साभार 1. संयोग श्रृंगार/अनुप्रास अलंकार सरर-सरर सरसरावत हवय, दुल्हा बन पुरवाही । धरती दुल्हन के घूंघट धर, लगथे आज समाही ।। घरर-घरर घरघरावत हवय, बदरा अपन जुबानी । दूनों झन खुशमुसावत हवय, ले अकरस के पानी ।। 2. वियोग श्रृगार/यमक अलंकार काम के चक्कर मा काम मरगे, नो हँव मैं सन्यासी । दूनों प्राणी करन नौकरी, मन मा आज उदासी ।। वो ऊहाँ मैं इहाँ मरत हँव, का राजा का रानी । अकेल्ला म अउ जाड़ बढ़ावय, ये अकरस के पानी ।। 3. करूण रस/श्लेष अलंकार घपटे ओ सुरता के बादर, बेरा मा झर जाथे । नाक-कान ला नोनी काटे, नाक-कान बोजाथे ।। मोरे कोरा के ओ लइका, रहिस न बिटिया रानी । झरर-झरर अब आँसु झरत हे, जस अकरस के पानी ।। 4. हास्य रस/श्लेष अलंकार कवि जोकर कस मसखरी करय, लाइन चार सुनाये । लिखे आन के चारों लाइन, अपने तभो बताये ।। हाँहाँ-हाँहाँ किलकारी भर, स्रोता करय सियानी । सोला आना कविता बाँचब, हे अकरस के पानी ।। 5. वीर रस/रूपक अलंकार सूरज के मैं आगी बारँव, अउ चंदा के भुर्री । बैरी जाड़ा जब बन आ

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