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कतका झन देखे हें-

//घर-घर के दीया बन जाबे//

श्री हरिवंशराय बच्चन के 1955 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘प्रणय पत्रिका‘ में प्रकाशित कविता ‘मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद- //घर-घर के दीया बन जाबे// मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। सुरूज करेजा मा अंगार धरे सात रंग बरसाथे धरती म । समुन्दर नुनछुर पानी पी के अमरित बरसाथे धरती म ।। घाव छाती म धरती सहिके महर-महर ममहाथे फूल म.... अपन जात धरम मरजाद, रे मन दुख मा भुला झन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। पुण्य हा जमा होथे जब आगी करेजा मा लगथे । येखर मरम जाने ओही जेखर काया ये सुलगथे ।। अंतस भरे रखथे जेन हा बनथे राख-धुंआ कचरा ... बाहिर निकल नाचथे-गाथे, ताव सकेल परकाश बन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। अनुवादक-रमेश चौहान -------------------------- मूल रचना- ‘मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ‘

साफ बोले मा हे बुराई का

आदरणीय सौरभ पाण्ड़े के भोजपुरी गजल ‘‘साफ़ बोले में बा हिनाई का ? काहें बूझीं पहाड़-राई का ? ‘‘ के छत्तीसगढ़ी मा अनुवाद - ------------------------------- साफ बोले मा हे बुराई का ? डबरा डिलवा हवय बताई का ?? रात दिन मा मितानी हे कइसन ? धंधा पानी मा भाई-भाई का ?? सब इहां तो हवय सुवारथ मा ? होय मा हमरे जग हसाई का ?? चंदा ला घेरे हे गा चंदैनी, कोनो इंहा सभा बलाई का ?? आज साहित्य के मुनाफा का ? ददरिया करमा गीत गाई का ?? जब मुठा के पकड़ बताना हे, फेर ये हाथ अउ कलाई का ?? खुदकुसी के हुनर मा माहिर हम, फेर का कामना, बधाई का ? कोखरो मुॅंह मा खून जब लागय, जानथन ऐखरे दवाई का ??

संझा (अनुदित रचना)

मूल रचना - ‘‘संध्या सुंदरी‘‘ मूल रचनाकार-श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ -------------------------------------------- बेरा ऐती न ओती बेरा बुडत रहिस, करिया रंग बादर ले सुघ्घर उतरत रहिस, संझा वो संझा, सुघ्घर परी असन, धीरे धीरे धीरे............... बुड़ती म, चुलबुलाहट के अता पता नइये ओखर दूनो होट ले टपकत हे मधुरस, फेर कतका हे गंभीर .... न हसी न ठिठोली, हंसत  हे त एके ठन तारा, करिया करिया चुंदी मा, गुथाय फूल गजरा असन मनमोहनी के रूप संवारत चुप्पी के नार वो तो नाजुक कली चुपचाप सिधवा के गर मा बहिया डारे बादर रस्ता ले आवत छांव असन नई बाजत हे हाथ मा कोनो चूरी न कोई मया के राग न अलाप मुक्का हे साटी के घुंघरू घला एक्के भाखा हे ओहू बोले नई जा सकय चुप चुप एकदम चुप ए ही हा गुंजत हे बदर मा, धरती मा सोवत तरिया मा, मुंदावत कमल फूल मा रूप के घमंडी नदिया के फइले छाती मा धीर गंभीर पहाड़ मा, हिमालय के कोरा मा इतरावत मेछरावत समुंद्दर के लहरा मा धरती आकास मा, हवा पानी आगी मा एक्के भाखा हे ओहू बोले नई जा सकय चुप चुप एकदम चुप एही हा गुंजत हे अउ का हे, कुछु नइये नशा धरे आवत

कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय

                       कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय (श्री हरिवंशराय बच्चन की अमर कृति ‘‘कोशिश करने वालो की हार नही होती‘‘ का अनुवाद) लहरा ले डरराये  म डोंगा पार नई होवय, कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय । नान्हे नान्हे चिटीमन जब दाना लेके चलते, एक बार ल कोन कहिस घेरी घेरी गिरते तभो सम्हलते । मन चंगा त कठौती म गंगा, मन के जिते जित हे मन के हारे हार, मन कहू हरियर हे तौ का गिरना अऊ का चढना कोन करथे परवाह । कइसनो होय ओखर मेहनत बेकार नई होवय, कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय । डुबकी समुददर म  गोताखोर ह लगाथे, फेर फेर डुबथे फेर फेर खोजथ खालीच हाथ आथे । अतका सहज कहां हे मोती खोजना  गहरा पानी म, बढथे तभो ले उत्साह ह दुगुना दुगुना ऐही हरानी म । मुठठी हरबार ओखर खाली नई होवय, कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय । नकामी घला एक चुनौती हे ऐला तै मान, का कमी रहिगे, का गलती होगे तेनला तै जान । जब तक न होबो सफल आराम हराम हे, संघर्ष ले झन भागव ऐही चारो धाम हे । कुछु करे बिना कभू जय जयकार नई होवय, कोशिश करईया मन के कभु हार नई होवय । .................‘‘रमेश‘‘.............

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