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कतका झन देखे हें-

हे जीवन दानी, दे-दे पानी

हे करिया बादर, बिसरे काबर, तै बरसे बर पानी । करे दुवा भेदी, घटा सफेदी, होके जीवन दानी ।। कहूं हवय पूरा, पटके धूरा, इहां परे पटपर हे । तरसत हे प्राणी, मांगत पानी, कहां इहां नटवर हे ।। हे जीवन दानी, दे-दे पानी, अब हम जीबो कइसे । धरती के छाती, खेती-पाती, तरसे मछरी जइसे ।। पीये बर पानी, आँखी कानी, खोजय चारो कोती । बोर कुँआ तरिया, होगे परिया,  कहां बूंद भर मोती ।।

अब आघू बढ़ही, छत्तीसगढ़ी

अब आघू बढ़ही, छत्तीसगढ़ी, अइसे तो लागत हे । बहुत करमचारी, अउ अधिकारी, येला तो बाखत हे ।। फेरे अपने मन, लाठी कस तन, खिचरी ला रांधत  हे । आके झासा मा, ये भाषा मा, आने ला सांधत हें ।।

हमर देश कइसन

हमर देश कइसन, सागर जइसन, सबो धरम मिलय जिहां । सुरूज असन बनके, मनखे तन के, गुण-अवगुण लिलय इहां । पर्वत कस ठाढ़े, जगह म माढ़े, गर्रा पानी सहिके । आक्रमणकारी, हमर दुवारी, रहिगे हमरे रहिके ।।

नेता के चरित्र,

नेता के चरित्र, होवय पवित्र, मनखे सबो कहत हे । जनता पुच्छला, हल्ला-गुल्ला, उन्खर रोज सहत हे ।। ओमन चिल्लाथे, देश  लजाथे, देख-देख झगरा ला । हमर नाम लाथे, अपन बताथे, देखव ओ लबरा ला ।।

रिगबिग ले अँगना मा

हाँसत हे जीया, बारे दीया, रिगबिग ले अँगना मा । मिटय अंधियारी, हे उजियारी, रिगबिग ले अँगना मा ।। गढ़ के रंगोली, नोनी भोली, कइसन के हाँसत हे । ले हाथ फटाका, फोर चटाका, लइका हा नाचत हे ।।

प्रभु ला हस बिसराये

चवपैया छंद काबर तैं संगी, करत मतंगी, प्रभु ला हस बिसराये। ये तोरे काया, प्रभु के दाया, ओही ला भरमाये ।। धर मनखे चोला, कइसे भोला, होगे खुद बड़ ज्ञानी । तैं दुनिया दारी, करथस भारी, जीयत भर मन मानी ।। रमेश चौहान

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