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कतका झन देखे हें-

हे स्वाभिमान के,दरकार

जचकी ले मरनी, लाख योजना, हे यार । फोकट-सस्ता मा, बाँटत तो हे, सरकार ।। ढिठ होगे तब ले, हमर गरीबी, के बात । सुरसा के मुँह कस, बाढ़त हावे, दिन रात ।। गाँव-गाँव घर-घर, दिखे कंगला, भरमार । कागज के घोड़ा, भागत दउड़त, हे झार ।। दोषी जनता हे, या दोषी हे, सरकार । दूनो मा ता हे, स्वाभिमान के, दरकार ।।

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