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कतका झन देखे हें-

‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘

श्री केदारनाथ अग्रवाल के कविता ‘चन्द्रगहना से लौटती बेर‘ के आधार मा छत्तीसगढ़ी कविता - ‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘ देख आयेंव मैं गांव अब देखत हँव अपन चारो कोती खेत के मेढ़ मा बइठे-बइठे बीता भर बठवा चना मुड़ मा पागा बांधे छोटे-छोटे गुलाबी फूल के सजे-धजे खड़े हे । संगे-संगे खड़े हे बीच-बीच मा अरसी पातर-दुबर कनिहा ला डोलावत मुड़ी मा नीला-नीला फूल कहत हे कोनो तो मोला छुवय कोनो तो मोला देखय मन भर अपन सरबस दान कर देहूॅ । सरसों के झन पूछ एकदम सियान होगे हे हाथ पीला करके बिहाव मड़वा मा फाग गावत फागुन आगे हे तइसे लगथे । अइसे लगत हे जानो-मानो कोनो स्वयंबर चलत हे प्रकृति के मया के अचरा डोलत हे सुन-सान ये खेत मा षहर-पहर से दूरिहा मया के मयारू भुईंया कतका सुग्घर हे । गोड़ तरी हे तरिया जेमा लहरा घेरी-बेरी आवत जावत हे अउ लहरावत हे पानी तरी जागे कांदी कचरा एक चांदी के बड़का असन खम्भा आँखी मा चकमकावत हे । तीरे-तीरे कतका कन पथरा चुपे-चुप पानी पीयत हे कोन जनी पियास कब बुछाही । चुप-चाप खड़े कोकड़ा आधा गोड़ पानी मा डारे एती-तेती जावत मछरी ला देखते ध्यान छोड़ झट कन चोंच मा

बरखा ला फोन करे हे

नवगीत मोर गांव के धनहा-डोली, बरखा ला फोन करे हे । तोर ठिठोली देखत-देखत, छाती हा मोर जरे हे ।। रोंवा-रोंवा पथरा होगे, परवत होगे काया । पानी-माटी के तन हा मोरे समझय कइसे माया धान-पान के बाढ़त बिरवा, मुरछा खाय परे हे एको लोटा पानी भेजव, मुँह म छिटा मारे बर कोरा के लइका चिहरत हे, येला पुचकारे बर अब जिनगी के भार भरोसा ऊपर तोर धरे हे फूदक-फुदक के गाही गाना, तोर दरस ला पाके घेरी-घेरी माथ नवाही तोर पाँव मा जाके कतका दिन के बिसरे हावस सुन्ना इहां परे हे ।

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