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कतका झन देखे हें-

सरग-नरक

सरग-नरक हा मनोदशा हे, जे मन मा उपजे । बने करम हा सुख उपजाये, सरग जेन सिरजे ।। जेन करम हा दुख उपजाथे, नरक नाम धरथे । करम जगत के सार कहाथे, नाश-अमर करथे ।। बने करम तै काला कहिबे,  सोच बने धरले । दूसर ला कुछु दुख झन होवय, कुछुच काम करले ।। दूसर बर गड्ढा खनबे ता, नरक म तैं गिरबे । अपन करम ले कभू कोखरो, छाती झन चिरबे ।।

जात.पात ला छोड़व कहिथे

जात.पात ला छोड़व कहिथे, गिनती जे करथे । बाँट-बाँट मनखे के बोटी, झोली जे भरथे ।। गढ़े सुवारथ के परिभाषा, जात बने कइसे । निरमल काया के पानी मा, रंग घुरे जइसे ।। अगड़ी पिछड़ी दलित रंग के, मनखे रंग धरे । रंग खून के एक होय कहि, फोकट दंभ भरे । जात कहां रोटी-बेटी बर, कहिथे जे मनखे । आरक्षण बर जाति बता के, रेंगे हे तनके ।। खाप पंचायत कोरी.कोरी, बनथे रोज नवा । एक बिमारी अइसन बाचे, बाढ़े रोज सवा ।।

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