सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मुक्तामणि छंद लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

आगी लगेे पिटरोल मा,

आगी लगेे पिटरोल मा, बरत हवय दिन राती । मँहगाई भभकत हवय, धधकत हे छाती ।। कोरोना के मार मा, काम-बुता लेसागे । अउ पइसा बाचे-खुचे, अब तो हमर सिरागे ।। मरत हवन हम अइसने, अउ काबर तैंं मारे ।  डार-डार पिटरोल गा, मँहगाई ला बारे ।। सुनव व्‍यपारी, सरकार मन,  हम कइसे के जीबो । मँइगाई के ये मार मा, का हम हवा ल पीबो ।।  जनता मरहा कोतरी,  मँहगाई के आगी । लेसत हे नेता हमर, बांधत कनिहा पागी ।।   कोंदा भैरा अंधरा, राज्‍य केन्‍द्र के राजा । एक दूसर म डार के, हमर बजावत बाजा ।। दुबर ल दू अषाढ़ कस, डहत हवय मँहगाई । हे भगवान गरीब के, तुँही ददा अउ दाई ।। -रमेश चौहान

नवा जमाना आगे

मिलत नई हे गाँव मा, टेक्टर एको खोजे । खेत जोतवाना हवय, खोजत हँव मैं रोजे ।। बोवाई हे संघरा, नांगर हा नंदागे । नवा जमाना खेती नवा, नवा जमाना आगे ।।

मोर दूसर ब्लॉग