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कतका झन देखे हें-

कोरोना के कहर-काठी-माटी हा बिगड़त हे (सार छंद)

सार छंद कोरोना के कहर देख के, डर हमला लागे । गाँव-गाँव अउ शहर-शहर मा, कोराना हा छागे ।। सब ला एके दिन मरना हे, नहीं मरब ले डर गा । फेर मरे के पाछू मरना, मन काँपे थर-थर गा काठी-माटी हा बिगड़त हे, कोनो तीर न जावय । पिण्डा-पानी के का कहिबे, कपाल क्रिया न पावय ।। धरम-करम हे जियत-मरत के, काला कोन बतावय । अब अंतिम संस्कार करे के,  कइसे धरम निभावय ।। कभू-कभू तो गुस्सा आथे, शंका मन उपजाथे । बीमारी के करे बहाना, बैरी हा डरूवाथे ।। बीमरहा हे जे पहिली ले, ओही हर तो जाथे । बने पोठलगहा मनखे मन, येला मार भगाथे । हमरे संस्कार रहय जींदा, मरे म घला सुहाथे ।। -रमेश चैहान

पानी ले हे हमरे जिनगानी, पानी आज बचावव

सार छंद

कोरोना (सार छंद)

चित्र गुगल से सौजन्य एक अकेला आए जग मा,  एक अकेला जाबे । जइसे करनी तइसे भरनी, अपन करम गति पाबे ।। माटी होही तोरे चोला, माटी मा मिल जाबे । नाम करम के जिंदा रहिही, जब तैं काम कमाबे ।। चरदिनिया ये संगी साथी, बने बने मा भाथे । चारा मनभर चरय बोकरा, फेर कहां मिमियाथे ।। हाथ-गोड़ के लरे-परे मा, संगी कोन कहाथे ।  अपन देह हा अपने ऊपर, पथरा असन जनाथे ।। कोन जनी गा काखर मेरा,, भरे हवय कोरोना । संगी साथी ला देखे मा तो,  परही तोला रोना ।। भीड़-भाड़ ले दूरिया रही के, अपना हाथ ला धोना । रोग बड़े है दुनिया बोलय, मत तैं समझ खिलौना ।। -रमेश चौहान

ये अकरस के पानी

ये अकरस के पानी (सार छंद) फोटो स्रोत-गुगल से साभार 1. संयोग श्रृंगार/अनुप्रास अलंकार सरर-सरर सरसरावत हवय, दुल्हा बन पुरवाही । धरती दुल्हन के घूंघट धर, लगथे आज समाही ।। घरर-घरर घरघरावत हवय, बदरा अपन जुबानी । दूनों झन खुशमुसावत हवय, ले अकरस के पानी ।। 2. वियोग श्रृगार/यमक अलंकार काम के चक्कर मा काम मरगे, नो हँव मैं सन्यासी । दूनों प्राणी करन नौकरी, मन मा आज उदासी ।। वो ऊहाँ मैं इहाँ मरत हँव, का राजा का रानी । अकेल्ला म अउ जाड़ बढ़ावय, ये अकरस के पानी ।। 3. करूण रस/श्लेष अलंकार घपटे ओ सुरता के बादर, बेरा मा झर जाथे । नाक-कान ला नोनी काटे, नाक-कान बोजाथे ।। मोरे कोरा के ओ लइका, रहिस न बिटिया रानी । झरर-झरर अब आँसु झरत हे, जस अकरस के पानी ।। 4. हास्य रस/श्लेष अलंकार कवि जोकर कस मसखरी करय, लाइन चार सुनाये । लिखे आन के चारों लाइन, अपने तभो बताये ।। हाँहाँ-हाँहाँ किलकारी भर, स्रोता करय सियानी । सोला आना कविता बाँचब, हे अकरस के पानी ।। 5. वीर रस/रूपक अलंकार सूरज के मैं आगी बारँव, अउ चंदा के भुर्री । बैरी जाड़ा जब बन आ

सार छंद मा सार गोठ

जउन बहुत के करय चोचला, अलग अपन ला मानय । संग ओखरे रहय न कोनो, संग छोड़के भागय।। जेन मिलय गा खोल करेजा, छोड़ कपट के बाना । संग ओखरे मुले-जुले बर, मुड़ मा रेंगत जाना ।।1।। कभू अपनपन भूलाहू झन, मोर जेन ला मानव । जान भले जावय ता जावय, भार-भरोसा तानव ।। लोहा देखत पानी देवय, दुनिया येखर साखी । जेन जेन आँखी ले देखय, देखव ओही आँखी ।।2।। -रमेशकुमार चौहान

छेरी के गोठ

गाय-गाय के रट ला छोड़व, कहत हवय ये छेरी । मैं ओखर ले का कमतर हँव, सोचव घेरी-बेरी ।। मोर दूध ला पी के देखव, कतका गजब सुहाथे । हाथी-बघवा जइसे ताकत, देह तोर सिरजाथे ।। मैं डारा-पाना भर खाथँव, ओ हा झिल्ली पन्नी । खेत-खार ला तोरे चर के, कर दै झार चवन्नी ।। कभू-कभू मैं हर देखे हँव, तोरे गुह ला खावत । लाज-शरम ला बेच-बेच के, चारो मुड़ा मेछरावत , ।। गोबर ओखर खातू हे तऽअ, मोरो छेरी-लेड़ी । डार देखलव धान-पान मा,, गजब बाढ़ही भेरी ।। मूत ओखरे टीबी मेटय, मोर दमा अउ खाँसी । पूजा थारी ओला देथस, मोला काबर फाँसी ।।

नेता मन के दूध भात हे

नेता मन के दूध भात हे, बोलय झूठ लबारी । चाहय बैरी दुश्मन बन जय, चाहय त स॔गवारी ।। झूठ लबारी खुद के बिसरय,  बिसरय खुद के चोरी । चोर-चोर मौसेरे भाई,  करथे सीनाजोरी  ।। सरहा मछरी जेन न छोड़े, कान जनेऊ टांगे । खुद एको कथा न जानय,  प्रवचन गद्दी मांगे ।। खेत चार एकड़ बोये बर, बनहूं कहय गौटिया । काड़ छानही के बन ना पाये, बनही धारन पटिया ।। दाना अलहोरव सब चतुरा, बदरा बदरा फेकव । बने गाय गरुवा ला राखव, हरही-हरहा छेकव ।। -रमेश चौहान

छोड़ शांति के खादी

घात प्रश्न तो आज खड़े हे, कोन देश ला जोरे । भार भरोसा जेखर होथे, ओही हमला टोरे ।। नेता-नेता बैरी दिखथे, आगी जेन लगाथे । सेना के जे गलती देखे, आतंकी ला भाथे ।। काला घिनहा-बने कहँव मैं, एके चट्टा-बट्टा । सत्ता धरके दिखे जोजवा, पाछू हट्टा-कट्टा ।। देश पृथ्ककारी के येही, रक्षा काबर करथे । बैरी मन के देख-रेख मा, हमरे पइसा भरथे ।। देश पृथ्ककारी हे जेने, ओला येही पोसे । दोष अपन तो देख सकय ना, दूसर भर ला कोसे ।। थांघा आवय आतंकी मन, पेड़ अलगाववादी । जड़ ले काटव अइसन रूखवा, छोड़ शांति के खादी ।।

तीजा-पोरा

आवत रहिथन मइके कतको, मिलय न एक सहेली । तीजा-पोरा के मौका मा, आथे सब बरपेली ।। ओही अँगना ओही चौरा, खोर-गली हे ओही । आय हवय सब सखी सहेली, लइकापन ला बोही । हमर नानपन के सुरता ला, धरे हवन हम ओली । तीजा-पोरा मा जुरिया के, करबो हँसी ठिठोली ।। तरिया नरवा घाट घठौंदा, जुरमिल के हम जाबो । जिनगी के चिंता ला छोड़े, लइका कस सुख पाबो ।। अपन-अपन सुख दुख ला हेरत, हरहिंछा बतियाबो । तीजा-पोरा संगे रहिके, अपन-अपन घर जाबो ।

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