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संदेश

कतका झन देखे हें-

छत्तीसगढ़ी हाइकु

अरे पगली, मै होगेव पगला, तोर मया म । तोर सुरता, निंद भूख हरागे, मया म तोर । रात के चंदा, चांदनी ल देखव, एकटक रे । कब होही रे, मया संग मिलाप , गुनत हव । मया नई हे, गोरी के अंतस म, सुर्रत हव । एक नजर, देख तो मोरो कोती, मया के संगी । ....‘रमेश‘...

मिलईया हे मोला पगार

गुतुर गुतुर भाखा बोलय, अंतस म मधुरस घोलय, मोर सुवारी करे सिंगार, मिलईया हे मोला पगार । कईसे लगहूं जी कहू होही, कान म खिनवा, कनिहा म करधनिया, अऊ गर म होही सोनहा हार, मिलईया हे मोला पगार । फलनिया ह बनवाय हे, मोरो मन ललचाय हे, पूरा कर दौ ना जी मोरो साध, होही तुहार बड़ उपकार, मिलईया हे मोला पगार । ददा गो कापी पेन सिरागे हे, स्कूल के फिस ह आगे हे, लइकामन करत हे पुकार, मिलईया हे मोला पगार । मोर स्कूल बस्ता ह चिरागे हे, पेंट कुरता ह जुन्नागे हे, लइकामन करत हे मनुहार, मिलईया हे मोला पगार । रंधनही कुरीया ह चिल्लावत हे, घेरी घेरी चेतावत हे, सिरागे हे चाऊर दार, मिलईया हे मोला पगार । पाछू महिना बड़ सधायेंव, अपन बर मोटर साइकिल ले आयेंव, दुवारी म खड़े हे लगवार, मिलईया हे मोला पगार । का करव कइसे करव कहिके गुनत हव, अपने माथा ल अपने हाथ म धुनत हव, काबर एतके तनखा देते सरकार, मिलईया हे मोला पगार । .......‘‘रमेश‘‘...........

अब कहां लुकागे

मया प्रित के बोली, तोर हसी अऊ ठिठोली, अब कहां लुकागे......... तोला देखे के बड़ साध, ओधा बेधा ले रहंव मै ताक, ओ तकई, अब कहां लुकागे .......... कनेखी आंखी ले तोर देखई, संग म सुघ्घर तोर मुच मुचई, ओ मुच मुचई, अब कहां लुकागे ........ ओ छुप छुप के मिलई मया मा  खिलखिलई, ओ खिलखिलई अब कहां लुकागे......... तोर संग जीना अऊ संग मरना, तोर संग रेंगना अऊ संग घुमना, ओ घुमई , अब कहां लुकागे............ तोर रूठना मोर मनाना ओ मनई अब कहां लुकागे......... बिहाव करे हन के पाप का ये होगे हे अभिषाप, हाय रे रात दिन के कमई  ओ दिन अब कहां लुकागे....... लइका मन गे हे बाढ़, चिंता मुड़ी म गे हे माढ लइकामन संग खेलई, अब कहां लुकागे.................. लइका मन ल पढ़ाना हे लिखाना हे, जिनगी ल जिये बेर कुछु बनाना हे, हमर बनई, अब कहां लुकागे ............... जिये बर जियत हन, मया घला करत हन चिंता म चिचीयावत हन, अपन गीत कहां गावत हन, हमर मया प्रित के गीत, ओ गुनगुनई, अब कहां लुकागे.......

हम

हमरो खुशी अब नइये कोखरो ले कम । अपने हाथ म अपने भाग संवारत हन हम ।। काही बात के कमी नईये मेहनत घला नईये कम, पथरा म पानी ओगरत जंगल घला संवारत हन हम । खेती के रकबा भले पहिली ले होगे हे कम, फेर आगू ले ज्यादा फसल उगावत हन हम ।। पढ़ईयांमन के कमी नइये गुरूजीमन घला नईये कम, हाथ ले हाथ जोरीके षिक्षा के दिया जलावत हन हम । करिया अक्षर भईस बरोबर कहइय अब होगे हे कम, आखर आखर जोड़ के पोथी पतरा बनावत हन हम ।।  षहर बर सड़क के कमी नइये गांव बर रद्दा नईये कम, गांव ल घला शहर संग जोर के शहर बनावत हन हम । जंगल पहाड़ के रहईयामन के जिनगी म खुशी कहां हे कम, जंगल-झांड़ी पहाड़-खाई सबो मिलके गीत गांवत हन हम ।। हमर विकास म कमी नईये फेर जलनहा मन कहां हे कम, चारो कोती नक्सवाद के आगी तेमा जर भुंजावत हन हम । ऊखर मेर बंदूक गोली के कमी नईये बारूद घला नईये कम, जेनेला पावत हे मार गिरावत हे आंसू बहावत हन हम ।। ऊखर पाप मा कमी नइये पापीमन नई होवत हे कम, अपन ल हमर हितैशी बतावय अऊ बहकत हन हम । ताने बंदूक नगरा नाचत ये आतंक ह नई होवय कम, जब तक जुर मिलके दृढ़ इच्छा षक्ति नई जगाबो हम ।।

काबर हे

काबर हे मोर हरियर भुईया के रंग, लाल होवत काबर हे । मोर सोनचिरईयां कस ये धरती, रोवत काबर हे ।। हमर मन के विकास इखर आंखी म गड़त काबर हे । जब पाथे तब ऐमन लाल सलाम देवत काबर हे । का इखर तरक्की के सोच हमर ले आगर हे । त तरक्की के रद्दा छोड बंदूक धरे काबर हे । जंगल के संगी निच्चट भोला-भाला शांति के सागर हे । तेखरमन के मन म अशांति के बीजा बोवत काबर हे । जंगली के पक्का हितैशी अपन ल देखावत काबर हे । बंदूक के छांव म घिरार घिरार के जियावत काबर हे । लोकतंत्र के देश म अपन तानाशाही चलावत काबर हे । लोकतंत्र के रखवार ल मौत के घाट उतारत काबर हे । हिम्मत हे त आगू म आके हाथ दू चार करय, ओधा बेधा पाछू ले झगरा ल चलावत काबर हे । भोला भाला जनता, लाचार करमचारी जवान नेता, कोखरो होय बलिदान अबतक बेकार होवत काबर हे । जब कंधा ले कंधा मिलाके के हमला चलना हे, त हमार ये नेता मन अपनेच म लड़त काबर हे । अइसन अत्याचारी मन ल कोनो मन भोभरावत काबर हे । हमर देश के सरकार अपन इच्छाशक्ति ल लुकावत काबर हे । मोर धान के कटोरा म ऐमन खून भरत काबर हे । मोर भुईंया के मनखे मन बेखबर  सोवत काबर हे ।

सांझ

.बेरा ऐती न  ओती बेरा बुडत रहीस, करिया रंग बादर ले सुघ्घर उतरत रहिस, वो सांझ, सुघ्घर परी असन, धीरे धीरे धीरे............... बुड़ती म, फेर कोनो मेर नईये चंचलता के आभास, ओखर दुनो होट ले टपकत हे मधुरस, फेर कतका हे गंभीर .... न हसी न ठिठोली, हंसत  हे त एकेठन तारा, करीया करीया चूंददी म , संझारानी के मांग संवारत। ..........रमेश........

आसो के घाम

आगी के अंगरा कस दहकत हे आसो के घाम, अब ए जीवरा ल, अब ए जीवरा ल कहां-कहां लुकान । झुलसत हे तन, अऊ तड़पत हे मन, बिजली खेलय आंख मिचोली अब कइसे करी जतन । बिन पानी के मछरी कस तड़पत हे बदन, पेट के खतीर कुछु न कुछु करे ल पड़ते काम ।। आगी के अंगरा कस ...... धरती के जम्मो पानी अटावत हे, जम्मो रूख राई के पाना ह लेसावत हे । लहक लहक लहकत हे गाय गरूवां अऊ कुकुर, चिरई चिरगुन बईठे अब कउन ठांव ।। आगी के अंगरा कस ........ अब तो महंगाई सुरसा कस मुंह ल बढ़ावत हे, ये महंगाई अइसन घाम ले घला जादा जनावत है। घिरर घिरर के खिचत हन ये जिनगी के गाड़ी, अब कहां मिलय हमन शांति सुकुन के छांव ।। आगी के अंगरा कस ........ ................रमेश..............................

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