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संदेश

कतका झन देखे हें-

जानव अपन छंद ला

पाठ-1 छंद के पहिचान श्री गणपति गणराज के, पहिली पाँव पखार । लिखंव छंद के रंग ला, पिंगल भानु विचार ।। होहू सहाय शारदे, रहिहव मोरे संग । कविता के सब गुण-धरम, भरत छंद के रंग ।। गुरू पिंगल अउ भानु के, सुमरी-सुमरी नाम । नियम-धियम रमेश‘ लिखय, छंद गढ़े के काम ।। छंद वेद के पाँव मा, माथा रखय ‘रमेश‘ । छंद ज्ञान के धार ला, जग मा भरय गणेश ।। छंद- आखर गति यति के नियम, आखिर एके बंद । जे कविता मा होय हे, ओही होथे छंद ।। अनुसासन के पाठ ले, बनथे कोनो छंद । देख ताक के शब्द रख, बन जाही मकरंद ।। कविता के हर रंग मा, नियम-धियम हे एक । गति यति लय अउ वर्ण ला, ध्यान लगा के देख ।। छंद के अंग- गति यति मात्रा वर्ण तुक, अउ गाये के ढंग । गण पद अउ होथे चरण, सबो छंद के अंग ।। गति- छंद पाठ के रीत मा, होथे ग चढ़ उतार । छंद पाठ के ढंग हा, गति के करे सचार ।। यति- छंद पाठ करते बखत, रूकथन जब हम थोर । बीच-बीच मा आय यति, गति ला देथे टोर ।। आखर - आखर के दू भेद हे, स्वर व्यंजन हे नाम । ‘अ‘ ले ‘अः‘ तक तो स्वर हे, बाकी व्यंजन जान । बाकी व्यंजन जान, दीर्घ लघु जेमा होथे ।

वाह रे तै तो मनखे

जस भेडि़या धसान, धसे मनखे काबर हे । छेके परिया गांव, जीव ले तो जांगर हे ।। नदिया नरवा छेक, करे तै अपने वासा । बचे नही गऊठान, वाह रे तोर तमाशा । रद्दा गाड़ी रवन, कोलकी होत जात हे । अइसन तोरे काम, कोन ला आज भात हे ।। रोके तोला जेन, ओखरे बर तै दतगे । मनखे मनखे कहय, वाह रे तै तो मनखे ।। दे दूसर ला दोष, दोष अपने दिखय नही । दिखय कहूं ता देख, तहूं हस ग दूसर सही ।। धरम करम के मान, लगे अब पथरा जइसे । पथरा के भगवान, देख मनखे हे कइसे ।

बेटी (रोला छंद)

बेटी मयारू होय, ददा के सब झन कहिथे । दुनिया के सब दर्द, तोर पागा बर सहिथे ।। ससुरे मइके लाज, हाथ मा जेखर होथे । ओही बेटी आज, मुड़ी धर काबर रोथे।।

कृष्ण जन्माष्टमी

आठे कन्हया के लमे बाह भर बधाई भादो के महीना, घटा छाये अंधियारी, बड़ डरावना हे, ये रात कारी कारी । कंस के कारागार, बड़ रहिन पहेरेदार, चारो कोती चमुन्दा, खुल्ला नईये एकोद्वार । देवकी वासुदेव पुकारे हे दीनानाथ, अब दुख सहावत नइये करलव सनाथ । एक एक करके छैय लइका मारे कंस, सातवइया घला होगे कइसे अपभ्रंस । आठवईंया के हे बारी कइसे करव तइयारी, ऐखरे बर होय हे आकाषवाणी हे खरारी । मन खिलखिवत हे फेर थोकिन डर्रावत हे, कंस के काल हे के पहिली कस एखरो हाल हे । ओही समय चमके बिजली घटाटोप, निचट अंधियारी के होगे ऊंहा लोप । बिजली अतका के जम्मो के आंखी कान मुंदागे, दमकत बदन चमकत मुकुट चार हाथ वाले आगे । देवकी वासुदेव के हाथ गोड़ के बेड़ी फेकागे, जम्मो पहरेदारमन ल बड़ जोर के निदं आगे । देखत हे देवकी वासुदेव त देखत रहिगे, कतका सुघ्घर हे ओखर रूप मनोहर का कहिबे । चिटक भर म होइस परमपिता के ऊंहला भान, नाना भांति ले करे लगिन ऊंखर यशोगान । तुहीमन सृष्टि के करइवा अव जम्मो जीव के देखइया अव, धरती के भार हरइया अव जीवन नइया के खेवइया अव । मायापति माया देखाके होगे अंतरध्यान,

देश बर हम तो जियन

ये हमर तो देश संगी, घात सुघ्घर ठांव हे । हे हिमालय हा मुकुट कस, धोय सागर पांव हे । फूल बगिया के बने हे, वेष भाषा सब धरम । एक गठरी कस हवन हम, ये हमर आवय मरम ।। देश गांधी के पुजारी, हे अराधक शांति के । बोस नेताजी कहाथे, देवता नव क्रांति के ।। हे भगत शेखर सरीखे, वीर बलिदानी हमर । जूझ के होगे समर मा, जेन मन हा तो अमर ।। खून कतका के गिरे हे, देश के पावन चरण । तब मिले हे मुक्ति हमला, आज ओखर याद करन ।। सोच ऊखर होय पूरा, काम अइसन हम करन । भेट होही गा बड़े ये, देश बर हम तो जियन ।।

दांव मा लगगे पानी

पानी नदियां मा बढ़े, कइसे जाबो पार । भीड़ भरे हे घाट मा, कहां हे डोंगहार ।। कहां हे डोंगहार, जेन हा खेवय डोंगा । रिमझिम हे बरसात, मुड़ी मा छाता चोंगा । जाना बहिनी गांव, तीज बर जोहे रानी । ‘रमेष‘ करत विचार, दांव मा लगगे पानी ।। - रमेशकुमार सिंह चौहान

ददा (कुण्ड़लिया छंद)

रूखवा जइसे बन ददा, देथे हमला ठांव । हमरे बर फूलय फरय, देत मया के छांव ।। देत मया के छांव, जान के लगाय बाजी । कमाय जांगर टोर, हमर हर बाते राजी ।। कह ‘रमेश‘ मन लाय, ददा मोरे बड़ सुखवा । बने रहय छतनार, ददा मोरे जस रूखवा ।। - रमेशकुमार सिंह चौहान

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