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संदेश

कतका झन देखे हें-

कई कई हे पंथ

कई कई हे पंथ, सनातन बांटत । हिन्दू-हिन्दू बांट, धरम ला काटत ।। रावण कस विद्वान, इहां ना बाचय । सबो बवन्डर झेल, सनातन साचय । धरम जम्मा धरे हावे प्रतिक एक । सबो अपने अपन ला तो कहे नेक ।। बनाये मठ गड़ाये खम्ब साकार । तभो कहिथे इहां मंदिर हवे बेकार ।।

मया मा तोरे

तोर आँखी के, ये गुरतुर बोली । चुपे-चुप करथे, जब़ हँसी ठिठोली । देह धरती मा, मन उड़े अगासा । मया मा तोरे, जीये के आसा ।।

दू-चारठन दोहा

अपन हाथ के मइल तो, नेता मन ला जान । नेता मन के खोट ला, अपने तैं हा मान ।। दोष निकालब कोखरो, सबले सस्ता काम । अपन दोष ला देखना, जग के दुश्कर काम ।। नियम-धियम कानून ला, गरीबहा बर तान । हाथ गोड़ ला बांध ले, दिखगय अब धनवान ।। दे हस सामाजिक भवन, जात-पात के नाम । वोट बैंक के छोड़ के, आही कोने काम ।। अपन मया दुलार भरे, धरे हँवव मैं रंग । तोर मया ला पाय बर, मन मा मोर उमंग ।। बोरे बासी छोड़ के, अदर-कचर तैं खात । दूध-दही छोड़ के, भठ्ठी कोती जात ।। आँखी आँखी के गोठ मा, आँखी के हे दोष । दोष करेजा के नही, तभो हरागे होश ।। मन मा कुछु जब ठानबे, तब तो होही काम । मन मा भुसभुस होय ले, मिलथे कहां मुकाम ।। सारी-सारा साढ़हू, आज सरग के धाम । कका-बड़ा परिवार ले, हमला कोने काम ।।

भभकत आगी ला जल्दी ले बुतोवव

छत्तीस प्रकार सोच धरे छत्तीस प्रकार के मनखे छत्तीसगढ़ के संगे-संग हमर देश मा रहिथे जइसे कोनो फूल के माला मा रिकिम-रिकिम के फूल एक संग गुथाये होवय । हमर देश के छाती हा घातेच चाकर हे जेमा समा जाथे आनी-बानी के भाशा-बोली अउ आनी-बानी के सोच वाले मनखे । फेर अभी-अभी धुँवा आवत हे आगी सुलगत हे भीतर-बाहिर अपन-बिरान तोर-मोर के कचरा मा कोनो लुकी डार दे हे । दउड़व-दउड़व अपन सोच-विचार के हउला-डेचकी धर के समता के पानी भर के भभकत आगी ला जल्दी ले बुतोवव ।

भगतन, श्रद्धा ला चढ़ात हे

एती-तेती चारो कोती, ढोलक मादर संग, मंदिर-मंदिर द्वारे-द्वारे, जस हा सुनात हे । चुन्दी छरियाये झूपे, कोनो बगियाये झूपे, कोनो-कोनो साट बर, हाथ ला लमात हे ।। दाई के भगत सबो, डंडासरन गिरय अपन-अपन दुख, दाई ला सुनात हे । फूल-पान नरियर, चुरी-फिता लुगरा, संगे-संग भगतन, श्रद्धा ला चढ़ात हे ।।

‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘

श्री केदारनाथ अग्रवाल के कविता ‘चन्द्रगहना से लौटती बेर‘ के आधार मा छत्तीसगढ़ी कविता - ‘‘गांव ले लहुटत-लहुटत‘ देख आयेंव मैं गांव अब देखत हँव अपन चारो कोती खेत के मेढ़ मा बइठे-बइठे बीता भर बठवा चना मुड़ मा पागा बांधे छोटे-छोटे गुलाबी फूल के सजे-धजे खड़े हे । संगे-संगे खड़े हे बीच-बीच मा अरसी पातर-दुबर कनिहा ला डोलावत मुड़ी मा नीला-नीला फूल कहत हे कोनो तो मोला छुवय कोनो तो मोला देखय मन भर अपन सरबस दान कर देहूॅ । सरसों के झन पूछ एकदम सियान होगे हे हाथ पीला करके बिहाव मड़वा मा फाग गावत फागुन आगे हे तइसे लगथे । अइसे लगत हे जानो-मानो कोनो स्वयंबर चलत हे प्रकृति के मया के अचरा डोलत हे सुन-सान ये खेत मा षहर-पहर से दूरिहा मया के मयारू भुईंया कतका सुग्घर हे । गोड़ तरी हे तरिया जेमा लहरा घेरी-बेरी आवत जावत हे अउ लहरावत हे पानी तरी जागे कांदी कचरा एक चांदी के बड़का असन खम्भा आँखी मा चकमकावत हे । तीरे-तीरे कतका कन पथरा चुपे-चुप पानी पीयत हे कोन जनी पियास कब बुछाही । चुप-चाप खड़े कोकड़ा आधा गोड़ पानी मा डारे एती-तेती जावत मछरी ला देखते ध्यान छोड़ झट कन चोंच मा

छत्तीसगढ़ी श्लोक (अनुष्टुप छंद)

1. दुनिया ला बनाये तैं, कहाये भगवान गा । दुनिया ला चलाये तैं, मनखे बदनाम गा ।। 2. पत्ता डोलय ना एको, मरजी बिन तोर तो । अपन मन के धुर्रा, उड़ावय न थोरको ।। 3. तहीं हवस काया के, सब मा एक प्राण गा । तहीं हवस माया के, अकेल्ला सुजान गा ।। 4. सबकुछ ह तो तोरे, हमर एक तो तहीं । तैं पतंग के डोरी, हम पतंग के सहीं ।। 5. सब मा तोर माया हे, तोला जउन भात हे । कहां हमर ये बेरा, कुछु अवकात हे ।। 6. मनखे मनखे माने, मनखे मनखे सबो । मनखेपन के देदे, प्रभु तैं वरदान गो ।।

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