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संदेश

कतका झन देखे हें-

दाई के गोरस सही, धरती के पानी

दाई के गोरस सही, धरती के पानी । दाई ले बड़का हवय, धरती हा दानी ।। सहत हवय दूनो मनन, तोरे मनमानी । रख गोरस के लाज ला, कर मत नादानी ।। होगे छेदाछेद अब, धरती के छाती । कइसे बरही तेल बिन, जीवन के बाती ।। परत हवय गोहार सुन, अंतस मा तोरे । पानी ला खोजत हवस, गाँव-गली खोरे ।। रहिही जब जल स्रोत हा, रहिही तब पानी । तरिया नरवा बावली, नदिया बरदानी ।। पइसा के का टेस हे, पइसा ला पीबे । पइसा मा मिलही नही, तब कइसे जीबे ।।

हे स्वाभिमान के,दरकार

जचकी ले मरनी, लाख योजना, हे यार । फोकट-सस्ता मा, बाँटत तो हे, सरकार ।। ढिठ होगे तब ले, हमर गरीबी, के बात । सुरसा के मुँह कस, बाढ़त हावे, दिन रात ।। गाँव-गाँव घर-घर, दिखे कंगला, भरमार । कागज के घोड़ा, भागत दउड़त, हे झार ।। दोषी जनता हे, या दोषी हे, सरकार । दूनो मा ता हे, स्वाभिमान के, दरकार ।।

मनखे तैं नेक हो

जात-धरम, सबके हे, दुनिया के जीव मा । रंग-रूप, अलग-अलग, सब निर्जीव मा ।। जोड़ रखे, अपन धरम, धरती बर एक हो । देश एक, अपने कर, मनखे तैं नेक हो ।। 

लगही-लगही तब तो, गाँव हमर बढ़िया

//उड़ियाना-पद// लगही-लगही तब तो, गाँव हमर बढ़िया कान धरव ध्यान धरव, गोठ-बात मने भरव रखव-रखव साफ रखव, गाँव-गाँव तरिया ।। पानी के स्रोत रखव, माटी ला पोठ रखव जइसे के रखे रहिस, नंदलाल करिया ।। गाँव-गली चातर कर, लोभ-मोह ला झन धर बेजा कब्जा छोड़व, गाँव खार परिया ।। माथा ‘रमेश‘ हा धर, कहय दया अब तो कर गाय गरूवा बर दौ, थोड़-बहुत चरिया ।।

तीन छंद-कुण्डल-कुण्डलनि-कुण्डलियां

//कुण्डल// काम-बुता करव अपन, जांगर ला टोरे । देह-पान रखव बने, हाथ-गोड़ ला मोड़े ।। प्रकृति संग जुड़े रहव, प्रकृति पुरूष होके । बुता करब प्रकृति हमर, बइठव मत सोके ।। //कुण्डलनि // जांगर अपने टोर के, काम-बुता ला साज । देह-पान सुग्हर रहय, येही येखर राज ।। येही येखर राज, खेत मा फांदव नांगर । अन्न-धन्न अउ मान, बांटथे हमरे जांगर ।। //कुण्डलियां// अइठे-अइठे रहव मत, अपन पसीना ढार । लाख बिमारी के हवय, एकेठन उपचार ।। एकेठन उपचार, बनाही हमला मनखे । सुग्घर होही देह, काम करबो जब तनके ।। साहब बाबू होय, रहव मत बइठे-बइठे । अपने जांगर पेर, रहव मत अइठे-अइठे ।।

पानी जीवन आधार, जिंनगी पानी

पानी जीवन आधार, जिंनगी पानी । पानी हमरे बर आय, करेजा चानी ।। पानी बिन जग बेकार, जीव ना बाचे । जानत हे सब आदमी, बात हे साचे ।। बचा-बचा पानी कहत, चिहुर चिल्लाये । वाह वाहरे आदमी, कुछ ना  बचाये ।। काबर करथे आदमी, रोज नादानी । शहर-ष्श्हर अउ हर गाँव, एके कहानी ।। स्रोत बचाये ले इहां, बाचही पानी । कान खोल के गठियाव, गोठे सियानी ।। नदिया नरवा के रहे, बाचही पानी । तरिया खनवावव फेर, कर लौ सियानी ।। बोर भरोसा अब काम, चलय ना एको । भुइया सुख्खा हे आज, निटोरत देखो ।। बोर खने धुर्रा उड़य, मिलय ना पानी । हाल हवे बड़ बेहाल   कर लौ सियानी ।। -रमेश चौहान

दुई ढंग ले, होथे जग मा, काम-बुता

दुई ढंग ले, होथे जग मा, काम-बुता । हाथ-गोड़ ले, अउ माथा ले, मिले कुता ।। माथा चलथे, बइठे-बइठे, जेभ भरे । हाथ-गोड़ हा, देह-पान ला, स्वस्थ करे ।। दूनों मिल के, मनखे ला तो, पोठ करे । काया बनही, माया मिलही, गोड़ धरे । बइठइया मन, जांगर पेरव, एक घड़ी । जांगर वाले, धरव बुद्वि ला, जोड़ कड़ी ।।

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