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संदेश

कतका झन देखे हें-

आसों के जाड़

आसों के ये जाड़ मा, बाजत हावय दांत । सुरूर-सुरूर सुर्रा चलत, आगी घाम नगांत ।। आगी घाम नगांत, डोकरी दाई लइका । कका लमाये लात,  सुते ओधाये फइका ।। गुलगुल भजिया खात, गोरसी तापत हासों । कतका दिन के बाद, परस हे जाड़ा आसों ।। आघू पढ़व

मैं माटी के दीया

नवगीत मैं माटी के दीया वाह रे देवारी तिहार मनखे कस दगा देवत हस जीयत भर संग देहूँ कहिके सात वचन खाये रहेय । जब-जब आहूँ, तोर संग आहूँ कहिके मोला रद्दा देखाय रहेय कइसे कहँव तही सोच मोर अवरदा तेही लेवत हस मैं माटी के दीया अबला प्राणी का तोर बिगाड़ लेहूँ सउत दोखही रिगबिग लाइट ओखरो संताप अंतस गाड़ लेहूँ मजा करत तैं दुनिया मा अपने ढोंगा खेवत हस

बिना बोले बोलत हे

गाले मा हे लाली,  आँखी मा हे काजर, ओठ गुलाबी चमके, बिना ओ श्रृंगार के । मुच-मुच मुस्कावय, कभू खिलखिलावय बिना बोले बोलत हे, आँखी आँखी डार के ।।

ददरिया-ओठे लाली काने बाली

ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी फुरूर-फुरूर चुन्दी हो........... फुरूर-फुरूर चुन्दी डोले, डोले मनुवा मोरे ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी ओठे लाली काने बाली  तोला खुलय गोरी आघू पढ़व............

सुघ्घर कहां मैं सबले

मैं सबले सुघ्घर हवंव,  तैं घिनहा बेकार । राजनीति के गोठ मा, मनखे होत बिमार । मनखे होत बिमार,  राजनेता ला सुनके । डारे माथा हाथ,  भीतरे भीतर  गुणके ।। सुनलव कहय रमेश, रोग अइसन कबले । नेता हमरे पूत, कहां सुघ्घर मैं सबले ।। - रमेश चौहान

मया करे हिलोर

तोर आँखी के दहरा, मया करे हिलोर बिना बोले बोलत रहिथस बिना मुँह खोले । बिना देखे देखत रहिथस आँखी मूंदे होले-होले मोर देह के छाया तैं प्राण घला तैं मोर रूप रंग ला कोने देखय तोर अंतस हे उजयारी मोरे सेती रात दिन तैं खावत रहिथस गारी बिना छांदे छंदाय हँव तोर मया के डोर मोर देह मा घाव होथे पीरा तोला जनाथे अइसन मयारू ला छोड़े देवता कोने मनाथे तोर करेजा बसरी बानी मया तोर जस चितचोर

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