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कतका झन देखे हें-

मया बिना ये जिनगी कइसे

मया बिना ये जिनगी कइसे होथे, हवा बिना जइसे देह काया । रंग मया के एक कहां हे संगी, इंद्रधनुष जइसे होय माया ।। मया ददा-दाई के पहिली जाने, भाई-बहिनी घला पहिचाने । संगी मेरा तैं हर करे मितानी, तभो एकझन ला अपन जाने ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

टोकब न भाये

टोकब न भाये (करखा दंडक छंद) काला कहिबे, का अउ कइसे कहिबे, आघू आके, चिन्हउ कहाये । येही डर मा, आँखी-कान ल मूंदे, लोगन कहिथे, टोकब न भाये ।। भले खपत हे, मनखे चारों कोती, बेजा कब्जा, मनभर सकेले । नियम-धियम ला, अपने खुद के इज्जत, धरम-करम ला, घुरवा धकेले ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

कर मान बने धरती के

कर मान बने धरती के (खरारी छंद) कर मान बने, धरती के, देश प्रेम ला, निज धर्म बनाये । रख मान बने, धरती के, जइसे खुद ला, सम्मान सुहाये ।। उपहास करे, काबर तैं, अपन देश के, पहिचान भुलाये । जब मान मरे, मनखे के, जिंदा रहिके, वो लाश कहाये ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

सबो चीज के अपने गुण-धर्म

सबो चीज के अपने गुण धर्म, एक पहिचान ओखरे होथे । कोनो पातर कोनो रोठ, पोठ कोनो हा गुजगुज होथे । कोनो सिठ्ठा कोनो मीठ, करू कानो हा चुरपुर होथे । धरम-करम के येही मर्म, धर्म अपने तो अपने होथे ।। सबो चीज के अपने गुण दोश, दोष भर कोनो काबर देखे । गुण दूसर के तैंहर देख, दोष ला अपने रखत समेखे ।। मनखे के मनखेपन धर्म, सबो मनखे ला एके जाने । जीव दया ला अंतस राख, सबो प्राणी ला एके माने ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

करम बडे जग मा

करम बडे जग मा (दुर्मिल छंद) करम बड़े जग मा, हर पग-पग मा, अपन करम गति ला पाबे । कोने का करही, पेटे भरही, जभे हाथ धर के खाबे ।। काबर तैं बइठे, अइठे-अइठे, काम-बुता सब ला चाही । फोकट मा मांगे, जांगर टांगे, ता कोने हम ला भाही ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान यहां भी देख सकत हव

खेत-खार म जहर-महुरा

खेत-खार म जहर-महुरा (दंडकला छंद) कतका तैं डारे, बिना बिचारे, खेत-खार म जहर-महुरा । अपने मा खोये, तैं हर बोये, धान-पान य चना-तिवरा ।। मरत हवय निशदिन, चिरई-चिरगुन, रोगे-राई मा मनखे । मनखे सब जानय, तभो न मानय, महुरा ला डारय तनके ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

बर-पीपर के तुमा-कोहड़ा

बर-पीपर के तुमा-कोहड़ा (समान सवैया छंद) बर-पीपर के ओ रूख राई, धीरे-धरे तो बाढ़त जावय । बाढ़त-बाढ़त ठाड़ खड़ा हो, कई बरस ले तब इतरावय ।। तुमा-कोहड़ा नार-बियारे, देखत-देखत गहुदत  जावय । चारे महिना बड़ इतराये, खुद-बा-खुद ओ फेर सुखावय । -रमेशकुमार सिंह चौहान

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