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कतका झन देखे हें-

तर्क ज्ञान विज्ञान कसौटी

तर्क ज्ञान विज्ञान कसौटी, पढ़ई-लिखई के जर आवय । काबर कइसे प्रश्न खड़ा हो, जिज्ञासा ला हमर बढ़ावय ।। रटे-रूटाये तोता जइसे, अक्कल ला ठेंगा देखावय । डिग्री-डिग्री के पोथा धर के, ज्ञानी-मानी खुदे कहावय ।। जिहां तर्क के जरूरत होथे, फांदे ना अक्कल के नांगर । आस्था ला टोरे-भांजे बर, अपन चलावत रहिथे जांगर ।। ज्ञान परे आखर पोथी ले, कतको अनपढ़ ज्ञानी हावय । सृष्टि नियम विज्ञान खोजथे, ललक-सनक ला जेने भावय ।। सुख बीजा विज्ञान खोचथे, भौतिक सुविधा ला सिरजावय । खुद करके देखय अउ जानय, वोही हा विज्ञान कहावय ।। सृष्टि रीत जे जानय मानय, मानवता जे हर अपनावय । अंतस सुख के जे बीजा बोवय, वो ज्ञानी आदमी कहावय ।। एक ध्येय ज्ञानी विज्ञानी के, मनखे जीवन डगर बहारय । एक लक्ष्य अध्यात्म धर्म के, मनखे मन के सोच सवारय ।। अपन सुवारथ लाग-लपेटा, फेर कहां ले मनखे पावय । अपने घर परिवार बिसारे, अपने भर ला कइसे भावय ।। 

खून पसीना मा झगरा हे

खून पसीना मा झगरा हे, परे जगत के फेर बने-बुनाये सड़क एक बर, सरपट-सरपट दउड़े । एक पैयडगरी गढ़त हवे अपन भाग ला डउडे़ ।। (डउड़ना-सवारना) केवल अधिकार एक जानय, एक करम के टेर जेन खून के जाये होथे, ओखर चस्मा हरियर । जेन पसीना ला बोहाथे, ओखर मन हा फरियर ।। एक धरे हे सोना चांदी, दूसर कासा नेर ।।

बरखा ला फोन करे हे

नवगीत मोर गांव के धनहा-डोली, बरखा ला फोन करे हे । तोर ठिठोली देखत-देखत, छाती हा मोर जरे हे ।। रोंवा-रोंवा पथरा होगे, परवत होगे काया । पानी-माटी के तन हा मोरे समझय कइसे माया धान-पान के बाढ़त बिरवा, मुरछा खाय परे हे एको लोटा पानी भेजव, मुँह म छिटा मारे बर कोरा के लइका चिहरत हे, येला पुचकारे बर अब जिनगी के भार भरोसा ऊपर तोर धरे हे फूदक-फुदक के गाही गाना, तोर दरस ला पाके घेरी-घेरी माथ नवाही तोर पाँव मा जाके कतका दिन के बिसरे हावस सुन्ना इहां परे हे ।

करम बड़े के भाग

फांदा मा चिरई फसे, काखर हावे दोष । भूख मिटाये के करम, या किस्मत के रोष ।। या किस्मत के रोष, काल बनके हे आये । करम बड़े के भाग, समझ मोला कुछु ना आये ।। सोचत हवे ‘रमेश‘, अरझ दुनिया के थांघा । काखर हावे दोष, फसे चिरई हा फांदा ।।

पहा जथे हर रात, पहाती बेरा देखत

देखत कारी रात ला, मन मा आथे सोच । कुलुप अंधियारी हवय, खाही हमला नोच । खाही हमला नोच, हमन बाचन नहिं अब रे । पता नही भगवान, रात ये कटही कब रे ।। धर ले गोठ ‘रमेश‘, अपन मन ला तैं सेकत । पहा जथे हर रात, पहाती बेरा देखत ।

लंबा लबरा जीभ

खाये भर बर तो हस नही, लंबा लबरा जीभ । बोली बतरस मा घला, गुरतुर-गुरतुर नीभ ।। गुरतुर-गुरतुर नीभ, स्वाद दूनों तैं जाने । करू-करू के मीठ,  बने कोने ला तैं माने ।। पूछत हवय ‘रमेश‘,  मजा कामा तैं पाये । गुरतुर बोली छोड़, मीठ कतका तैं खाये ।।

आंगा-भारू लागथे

आंगा-भारू लागथे, हमरे देश समाज । समझ नई आवय कुछुच, का हे येखर राज ।। का हे येखर राज, भरे के अउ भरते हे । दुच्छा वाले आज, झरे ऊँपर झरते हे ।। सोचत हवे ‘रमेश‘, जगत हे गंगा बारू । माने मा हे देव, नहीं ता आंगा-भारू ।।

करम तोर पहिचान हे

अपने ला पहिचान, देह हस के तैं आत्मा । पाँच तत्व के देह, जेखरे होथे खात्मा ।। देह तत्व ले आन, अमर आत्मा हा होथे । करे देह ला यंत्र, करम फल ला वो बोथे ।। रंग-रूप ला छोड़ के, करम तोर पहिचान हे । मनखेपन ला मान,  तोर येही अभिमान हे ।।

बरवै छंद

1. हमर गाँव के धरती, सबले पोठ । गुरतुर भाखा बोली, गुरतुर गोठ ।। 2. तुँहर पेट ला भरथे, हमर किसान । मन ले कर लौ संगी, ओखर मान ।। 3. झूठ लबारी के हे, दिन तो चार । सत के सत्ता होथे, बरस हजार ।। 4. सत के रद्दा मा तो  हे भगवान । मोर गोठ ला संगी, सिरतुन जान ।। 5.जइसन बीजा होथे, तइसन झाड़ । सोच-समझ के संगी,  रद्दा बाढ़ ।। 6. सुख-दुख हा तो होथे, जस दिन रात । एक-एक कर आथे, सिरतुन बात ।। 7. धरम करम मा बड़का, होथे कोन । करम धरम ला गढ़थे, होके मोन ।। 8. बेजाकब्जा छाये, जम्मो गाँव । तोपा गे रूख-राई, बर के छाँव ।। 9.शिक्षा मा तो चाही, अब संस्कार । तब ना तो मिटही गा, भ्रष्टाचार ।। 10 घुसखोरी ले बड़का, भ्रष्टाचार । येला छोड़े बर तो, देश लचार ।

ये गांव ए (मधुमालती छंद)

सुन गोठ ला, ये गांव के। ये देश के, आें ठांव के जे देश के, अभिमान हे । संस्कार के पहिचान हे परिवार कस, सब संग मा, हर बात मा, हर रंग मा बड़ छोट सब, हा एक हे । हर आदमी, बड़ नेक हे दुख आन के, जब देखथें । निज जान के, सब भोगथे जब देखथे, सुख आन के । तब नाचथे, ओ तान के हर रीत ला, सब जानथें । मिल संग मा, सब मानथें हर पर्व के, हर ढंग ला । रग राखथे, हर रंग ला ओ खेत मा, अउ खार मा । ओ मेढ़ मा, अउ पार मा बस काम ला, ओ जानथे । भगवान कस, तो मानथे संबंध ला, सब बांध के । अउ प्रीत ला, तो छांद के निक बात ला, सब मानथे । सब नीत ला, भल जानथे चल खेत मा, ये बेटवा । मत घूम तैं, बन लेठवा कह बाप हा, धर हाथ ला । तैं छोड़ झन, गा साथ ला ये देश के, बड़ शान हे । जेखर इहां तो मान हे ये गांव ए, ये गांव ए । ए स्वर्ग ले, निक ठांव ए

हे काम पूजा

तैं बात सुन्ना । अउ बने गुन्ना जी भर कमाना । भर पेट खाना ये पूट पूजा । ना करे दूजा जीनगी जीबे । जब काम पीबे बिन काम जोही । का तोर होही हे पेट खाली । ना बजे ताली ये एक बीता । हे रोज रीता तैं भरे पाबे । जब तैं कमाबे परिवार ठाढ़े । अउ बुता बाढ़े ना हाथ पैसा । परिवार कैसा जब जनम पाये । दूधे अघाये जब गोड़ पाये । तब ददा लाये खाई खजेना । तैं हाथ लेना लइका कहाये । खेले भुलाये ना कभू सोचे । कुछु बात खोचे काखर भरोसा । पांचे परोसा आये जवानी । धरके कहानी अब काम खोजे । दिन रात रोजे पर के सपेटा । खाये चपेटा तैं तभे जाने । अउ बने माने संसार होथे । दुख दरद बोथे जब हाथ कामे । तब होय नामे तैं बुता पाये । दुनिया बसाये दिन रात फेरे । जांगर ल पेरे ये पेट सेती । तैं करे खेती प्रिवार पोसे । बिन भाग कोसे बस बुता कामे । कर हाथ ताने जब काम होथे । सब मया बोथे बेरा पहागे । जांगर सिरागे डोकरा खॉसे । छोकरा हॉसे

अरे दुख-पीरा तैं मोला का डेरुहाबे

अरे दुख पीरा, तैं  मोला का डेरूहाबे मैं  पर्वत के पथरा जइसे, ठाढ़े रहिहूँव । हाले-डोले बिना, एक जगह माढ़े रहिहूँव जब तैं  चारो कोती ले बडोरा बनके आबे अरे दुख पीरा, तैं मोला का डेरूहाबे मैं लोहा फौलादी हीरा बन जाहूँ तोर सबो ताप, चुन्दी मा सह जाहूँ जब तैं दहक-दहक के आगी-अंगरा बरसाबे अरे दुख पीरा, तैं  मोला का डेरूहाबे बन अगस्त के हाथ पसेरी अपन हाथ लमाहूँ सागर के जतका पानी चूल्लू मा पी जाहूँ, जब तैं इंद्र कस पूरा-पानी तै बरसाबे अरे दुख पीरा, तैं  मोला का डेरूहाबे

गलती ले बड़का सजा

लगे काम के छूटना, जीयत-जागत मौत । गलती ले बड़का सजा, भाग करम के सौत ।। भाग करम के सौत, उठा पटकी खेलत हे । काला देवय दोष, अपने अपन  झेलत हे ।। ‘रमेश‘ बर कानून, न्याय बस हवय नाम के । चिंता करथे कोन, कोखरो लगे काम के ।।

कवि मनोज श्रीवास्तव

घोठा के धुर्रा माटी मा, जनमे पले बढ़े हे नवागढ़ के फुतकी, चुपरे हे नाम मा । हास्य व्यंग के तीर ला, आखर-आखर बांध आघू हवे अघुवाई, संचालन काम मा । धीर-वीर गंभीर हो, गोठ-बात पोठ करे रद्दा-रद्दा आँखी गाड़े, कविता के खोज मा । घोठा अउ नवागढ़, बड़ इतरावत हे श्यामबिहारी के टूरा, देहाती मनोज मा ।। -रमेश चौहान

बेरोजगारी (सुंदरी सवैया)

नदिया-नरवा जलधार बिना, जइसे अपने सब इज्जत खोथे । मनखे मन काम बिना जग मा, दिनरात मुड़ी धर के बड़ रोथे ।। बिन काम-बुता मुरदा जइसे, दिनरात चिता बन के बरथे गा । मनखे मन जीयत-जागत तो, पथरा-कचरा जइसे रहिथे गा ।। सुखयार बने लइकापन मा, पढ़ई-लिखई करके बइठे हे । अब जांगर पेरय ओ कइसे, मछरी जइसे बड़ तो अइठे हे ।। जब काम -बुता कुछु पावय ना, मिन-मेख करे पढ़ई-लिखई मा बन पावय ना बनिहार घला,  अब लोफड़ के जइसे दिखई मा ।। पढ़ई-लिखई गढ़थे भइया, दुनिया भर मा करमी अउ ज्ञानी । हमरे लइका मन काबर दिखते,  तब काम-बुता बर मांगत पानी । चुप-चाप अभे मत देखव गा,  गुण-दोष  ल जाँचव पढ़ई लिखई के । लइका मन जानय काम-बुता, कुछु कांहि उपाय करौ सिखई के ।।

मुक्तक -मया

सिलाये ओठ ला कइसे खोलंव । सुखाये  टोटा ले कइसे बोलंव । धनी के सुरता के ये नदिया मा ढरे आँखी ला तो पहिली धोलंव

मन के मइल (दुर्मिल सवैया)

जइसे तन धोथस तैं मल के, मन ला कब  धोथस गा तन के । तन मा जइसे बड़ रोग लगे, मन मा लगथे  बहुते छनके ।। मन देखत दूसर ला जलथे, जइसे जब देह बुखार धरे । मन के सब लालच केंसर हो, मन ला मुरदा कस खाक करे ।। मन के उपचार करे बर तो, दवई धर लौ निक सोच करे । मन के मइले तन ले बड़का, मन ला मल ले भल सोच धरे ।। मन लालच लोभ फसे रहिथे, भइसी जइसे चिखला म धसे । अपने मन सुग्घर तो कर लौ, जइसे तुहरे तन जोर कसे ।।

सरग-नरक

सरग-नरक हा मनोदशा हे, जे मन मा उपजे । बने करम हा सुख उपजाये, सरग जेन सिरजे ।। जेन करम हा दुख उपजाथे, नरक नाम धरथे । करम जगत के सार कहाथे, नाश-अमर करथे ।। बने करम तै काला कहिबे,  सोच बने धरले । दूसर ला कुछु दुख झन होवय, कुछुच काम करले ।। दूसर बर गड्ढा खनबे ता, नरक म तैं गिरबे । अपन करम ले कभू कोखरो, छाती झन चिरबे ।।

काबर डारे मोर ऊपर गलगल ले सोना पानी

काबर डारे मोर ऊपर, गलगल ले सोना पानी नवा जमाना के चलन ताम-झाम ला सब भाथें गुण-अवगुण देखय नही रंग-रूप मा मोहाथें मैं डालडा गरीब के संगी गढ़थव अपन कहानी चारदीवारी  के फइका दिन ब दिन टूटत हे लइका बच्चा मा भूलाये दाई-ददा छूटत हे मैं अढ़हा-गोढ़हा लइका दाई के करेजाचानी संस्कृति अउ संस्कार बर कोनो ना कोनो प्रश्न खड़े हे अपन गांव के चलन मिटाये बर देशी अंग्रेज के फौज खड़े हे मैं मंगल पाण्डेय लक्ष्मीबाई के जुबानी

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