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संदेश

कतका झन देखे हें-

जागव जागव अब बस्तरिहा

जागव जागव अब बस्तरिहा, लावव संगी नवा बिहान । तोर छोड़ के कोनो ऊंहा, कर सकय न थोरको निदान ।। तपत हवे तूहरे भरोसा, तू ही मन ला ढाल बनाय । तू ही मन ला मार मार के, तू ही मन ला खूब डराय ।। धरे बम्म अउ गोला बारूद, लूटे तोरे तीर कमान । जंगल मा ओ कब्जा करके, लूटत हे तोरे पहिचान ।। काट-काट विकास के रद्दा, जंगल राखे तोला धांध । देख सकव झन जग हे कइसे, राखे खूंटा तोला बांध ।। अपन आप ला मितान कहिके, तोरे गरदन देथे घोठ । तोरे बर ओ बनाय फांदा, जीभ निकाले करथे गोठ ।। एक-एक तो ग्यारा होथे, देखव तुम सब हाथ मिलाय हो जव लकडी के गठरी कस, गांठ मया के देव लगाय । खोल सरग तक अपने पांखी, उड जावव न फांदा समेत । कब तक तू मन सूते रहिहव, अब तो हो जावव ग सचेत ।। जंगल के तू ही मन राजा, भालू चीता षेर हराय । बैरी सियार मन ला काबर, अब तू मन रहिथव डरराय । दम भर दहाड तै जंगल मा, डारा पाना सुन के झर जाय । सियार सुन के दहाड़ तोरे, जिहां रहय ऊंहे मर जाय ।।

कोन हा दुख ला सहिथे

कहिथे सब सरकार के, हवय न ऐमा दोष । जेन ल देखव तेन हा, उतारत हवे रोष।। उतारत हवे रोष, कहे ला करत नई हे । सपना के ओ गोठ, थोरको भरत नई हे ।। पूछत हवे ‘रमेश‘, कोन हा दुख ला सहिथे । सपना देखय जेन, सबो झन येही कहिथे ।।

भरय नही गा पेट हा

भरय नही गा पेट हा, होय मा कलमकार । कलाकार ला कोन हा, देथे पइसा चार ।। देथे पइसा चार, कोन हर गा इज्जत ले । बिधुन अपनेच काम, मस्त हे बेइज्जत ले ।। डौकी लइका रोय, कोडि़हा कहय सही गा । कविता लिख गा गीत, पेट हा भरय नही गा ।।

सबो फिक्स हे खेल मा

कतको तै हर कूद ले, नइ चलय तोर दांव । सबो फिक्स हे खेल मा, फिक्स हवय हर नाव ।। फिक्स हवय हर नाव, सलेक्सन काखर होही । खुल-खुल हॅसही कोन, कोन माथा धर रोही ।। हे सरकारी काम, तुमन जादा झन भटको । भीड़ा अपन जुगाड़, इहां मिलही रे कतको ।। -रमेश चौहान

करत अकेल्ला काम

कइसे करबे काम ला, देखत हे संसार । तही अकेल्ला शेर हस, बाकी सबो सियार ।। बाकी सबो सियार, शेर के लइका होके । भुलाय अपन सुभाव, लुकावत हे रो रो के ।। हर मुखिया के हाल, हवय रे कुछ तो अइसे । करत अकेल्ला काम, काम होवय रे कइसे ।।

घाम जेठ के घात हे

घाम जेठ के घात हे, रद्दा जाके जांच । कान नाक मुॅह तोप के, झोला ले तै बाच ।। झोला ले तै बाच, गोंदली जेब धरे रह । अदर-कचर झन बोज, भूख ला थोकिन तै सह ।। मुॅह झन तोर सुखाय, थिरा ले छांव बेठ के । हरर-हरर हे घात, आज तो घाम जेठ के ।। -रमेश चौहान

मया ले सनाय दिल गा

मिरगा कस खोजत हवस, गांव गली अउ खोर । कसतूरी कस हे मया, समाय भीतर तोर ।। समाय भीतर तोर, मया ला पाके उपजे । रगड़ होय जब बांस, बास मा आगी सिरजे ।। महर महर ममहाय, मया ले सनाय दिल गा । खूब कूदत नाचत, पाय ओ मयारू मिरगा ।।

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