अरे बेटा, गोठ सुन तो, चलय काम कइसे । घूमत हवस, चारो डहर, घूमय मन जइसे ।। चारो डहर, नौकरी ला, खोजत हस दुनिया । आसा छोड़, अब येखरे, ये हे बैगुनिया ।। जांगर पेर, काम करथे, घर के ये भइसा । खेत जाबो, हम कमाबो, पाबो दू पइसा ।। तोर अक्कल, येमा लगा, कर खेती बढ़िया । ठलहा होय, बइठ मत तैं, बन मत कोढ़िया ।।
मैं सिहावा हूं- श्रृंगी ऋषि की तपोभूमि और उनका सांस्कृतिक विरासत -श्रीमती
संध्या सुभाष मानिकपुरी
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मैं सिहावा हूं — महानदी का पवित्र उद्गम स्थल, सप्तश्रृंग पर्वतों की छाया
में बसा वह अद्भुत अंचल, जहां ऋषियों की गूंज अब भी हवा में बहती है। मेरी
पहचान…
2 दिन पहले