बिन काम-बुता हम तो मरबो (दुर्मिल सवैया) चल रे चल गा चल ना चल जी, कुछु काम-बुता हम तो करबो । पढ़ आखर चार भला दुनिया, हम काम बिना कइसे तरबो । बइठे-बइठे मिलही कुछु का ? पइसा बिन इज्जत का भरबो । पढ़ई-लिखई सब फोकट हे, बिन काम-बुता हम तो मरबो ।। पढ़ई-लिखई जरूरी जग मा, पर हे बिरथा सब काम बिना । पढ़ के हम आखिर का करबो बिन काम-बुता अउ दाम बिना ।। कुछु काम न आवय रे हमला अइसे पढ़ई तन जान बिना । अँखिया अब खोल निटोर बने, धन हे जब आखर ज्ञान बिना ।। -रमेश चौहान
मैं सिहावा हूं- श्रृंगी ऋषि की तपोभूमि और उनका सांस्कृतिक विरासत -श्रीमती
संध्या सुभाष मानिकपुरी
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मैं सिहावा हूं — महानदी का पवित्र उद्गम स्थल, सप्तश्रृंग पर्वतों की छाया
में बसा वह अद्भुत अंचल, जहां ऋषियों की गूंज अब भी हवा में बहती है। मेरी
पहचान…
3 दिन पहले