जांगर टोर-जेन हा, खून पसीना बहाये, ओही मनखे के संगी, नाम मजदूर हे । रिरि-रिरि दर-दर, दू पइसा पाये बर ओ भटका खायेबर, आज मजबूर हे । अपन गाँव गली छोड़, अपने ले मुँह मोड़ जाके परदेश बसे, अपने ले दूर हे । सुख-दुख मा लहुटे, फेर शहर पहुटे हमर बनिहार के, एहिच दस्तूर हे ।। कोरोना माहामारी के, मार पेट मा सहिके का करय बिचारा, गाँव कोती आय हे । करे बर बुता नहीं, खाये बर कुछु नहीं डेरा-डंडी छोड़-छाड, दरद देखाय हे । नेता हल्ला-गुल्ला कर, अपने रोटी सेकय दूसर के पीरा मा, राजनीति भाय हे । येखर-वोखर पाला, सरकार गेंद फेकत अपने पूछी ल संगी, खुदे सहराय हे । -रमेश चौहान
पुस्तक समीक्षा:शोधार्थियों के लिए बहुपयोगी प्रबंध काव्य “राजिम सार”-अजय
‘अमृतांशु’
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मनीराम साहू मितान द्वारा सृजित “राजिम सार” छत्तीसगढ़ी छन्द प्रबंध काव्य
पढ़ने को मिला। छत्तीसगढ़ी में समय-समय पर प्रबंध काव्य लिखे जाते रहे है।
पंडित सुंदर...
5 दिन पहले