छत्तीसगढ़ी बरवै छत्तीसगढ़ी अड़बड़, गुरतुर बोल । बोलव संगी जुरमिल, अंतस खोल ।। कहाँ आन ले कमतर, हवय मितान ।। अपने बोली-बतरस, हम गठियान ।। छोड़ चोचला अब तो, बन हुशियार । अपन गोठ हा अपने, हे कुशियार ।। पर के हा पर के हे, अपन न मान । अपने भाखा पढ़-लिख, हम गुठियान ।। अंग्रेजी मा फस के, हवस गुलाम । अपने भाखा बोलत, करलव काम ।।
डुमन लाल ध्रुव की दो कवितायें
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जनजातीय गौरव पहाड़ की छाया मेंएक आदमी खड़ा हैउसके पैरों में जूते नहींपर
जमीन उसे पहचानती है।वह जंगल से बात करता हैबिना भाषा बदलेपेड़ उसकी चुप्पी को
समझते ह...
11 घंटे पहले