नीति के दोहा धरम करम के सार हे, जिये मरे के नेंग । जीयत भर करले करम, नेकी रद्दा रेंग ।। करम तोर पहिचान हे, करम तोर अभिमान । जइसे करबे तैं करम, तइसे पाबे मान ।। करे बुराई आन के, अपनो अवगुण देख । धर्म जाति के आदमी, गलती अपने सरेख ।। पथरा लकड़ी चेंदरा, अउ पोथी गुरू नाम । आस्था के सब बिम्ब हे, माने से हे काम ।। आस्था टोरे आन के, डफली अपन बजाय । तोरो तो कुछु हे कमी, ओला कोन बताय ।। मनखे ला माने कहाँ, मनखे मनखे एक । ऊँच-नीच घिनहा बने, सोच धरे हस टेक ।। बदला ले के भाव ले, ओखी जाथे बाढ़ । भुले-बिसरे भूल के, ओखी झन तैं काढ़ ।। -रमेश चौहान
पुस्तक समीक्षा:शोधार्थियों के लिए बहुपयोगी प्रबंध काव्य “राजिम सार”-अजय
‘अमृतांशु’
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मनीराम साहू मितान द्वारा सृजित “राजिम सार” छत्तीसगढ़ी छन्द प्रबंध काव्य
पढ़ने को मिला। छत्तीसगढ़ी में समय-समय पर प्रबंध काव्य लिखे जाते रहे है।
पंडित सुंदर...
3 हफ़्ते पहले