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कतका झन देखे हें-

गंवा गे जी गांव

    गंवा गे जी गांव, कहूं देखे हव का गा ।     बइठे कोनो मेर, मुड़ी मा बांधे पागा ।।     खोंचे चोंगी कान, गोरसी तापत होही ।     मेझा देवत ताव, देख इतरावत होही ।।1।।     कहां खदर के छांव, कहां हे पटाव कुरिया ।     ओ परछी रेंगान, कहां हे ठेकी चरिया ।।     मूसर काड़ी मेर, हवय का संगी बहना ।     छरत टोसकत धान, सुनव गा दाई कहना ।।2।।     टोड़ा पहिरे गोड़, बाह मा हे गा बहुटा ।     कनिहा करधन लोर, सूतिया पहिरे टोटा ।।     सुघ्घर खिनवा ढार, कान मा पहिरे होही ।     अपने लुगरा छोर, मुडी ला ढाॅंके होही ।।3।।     पिठ्ठुल छू छूवाल, गली का खेलय लइका ।     ओधा बेधा मेर, लुकावत पाछू फइका ।।     चर्रा खुड़वा खेल, कहूं का खेलय संगी ।     उघरा उघरा होय, नई तो पहिरे बंडी ।।4।।     घर मोहाटी देख, हवय लोहाटी तारा ।     गे होही गा खेत, सबो झन बांधे भारा ।।     टेड़त संगी कोन, देख बारी मा टेड़ा ।     फरे भाटा पताल, हवय का सुघ्घर केरा ।।5।।      रद्दा रेंगत जात , धरे अंगाकर रोटी ।     धोती घुटना टांग, फिरे का देख कछोटी ।।     पीपर बरगद छांव, ढिले का गढहा गाड़ी ।     करत बइठ आराम, दे

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