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संदेश

कतका झन देखे हें-

सुरूज के किरण संग मन के रेस लगे हे

सुरूज के किरण संग मन के रेस लगे हे छिन मा तोला छिन मा मासा नाना रूप धरे हे काया पिंजरा के मैना हा पिंजरा म कहां परे हे करिया गोरिया सब ला मन बैरी हा ठगे हे सरग-नरक ल छिन मा लमरय सुते-सुते खटिया मा झरर-झरर बरय बुतावय जइसे भूरी रहेटिया मा माया के धुन्धरा म लगथे मन आत्मा हा सगे हे मन के जीते जीत हे हारही कइसे मन ह रात सुरूज दिखय नही हरहिंछा घूमय मन ह ‘मैं‘ जानय न अंतर मन म अइसन पगे हे

बिहनिया के राम-राम

आज के बिहनिया सुग्घर, कहत हंव जय राम । बने तन मन रहय तोरे, बने तोरे काम । मया तोला पठोवत हंव, अपन गोठ म घोर । मया मोला घला चाही,  संगवारी तोर ।

हमर देश कइसन

हमर देश कइसन, सागर जइसन, सबो धरम मिलय जिहां । सुरूज असन बनके, मनखे तन के, गुण-अवगुण लिलय इहां । पर्वत कस ठाढ़े, जगह म माढ़े, गर्रा पानी सहिके । आक्रमणकारी, हमर दुवारी, रहिगे हमरे रहिके ।।

गाँव के हवा

रूसे धतुरा के रस गाँव के हवा म घुरे हे ओखर माथा फूट गे बेजाकब्जा के चक्कर मा येखर खेत-खार बेचागे दूसर के टक्कर मा एक-दूसर ल देख-देख अपने अपन म चुरे हे एको रेंगान पैठा मा कुकुर तक नई बइठय बिलई ल देख-देख मुसवा कइसन अइठय पैठा रेंगान सबके अपने कुरिया म बुड़े हे गाँव के पंच परमेश्वर कोंदा-बवुरा भैरा होगे राजनीति के रंग चढ़े ले रूख-राई ह घला भोगे न्याय हे कथा-कहिनी हकिकत म कहां फुरे हे

//छत्तीसगढ़ी माहिया//

तोर मया ला पाके मोर करेजा मा धड़कन  फेरे जागे तोर बिना रे जोही सुन्ना हे अँगना जिनगी के का होही देत मिले बर किरया मन मा तैं बइठे तैं हस कहां दूरिहा जिनगी के हर दुख मा ये मन ह थिराथे तोर मया के रूख मा सपना देखय आँखी तीर म मन मोरे जावंव खोले पाँखी

जब काल ह हाथ म बाण धरे

दुर्मिल सवैया जब काल ह हाथ म बाण धरे, त जवान सियान कहां गुनथे । झन झूमव शान गुमान म रे, सब राग म ओ अपने सुनथे ।। करलै कतको झगरा लड़ई, चिटको कुछु काम कहां बनथे । मन मूरख सोच भला अब तैं, फँस काल म कोन भला बचथे ।

अब तो हाथ हे तोरे

लिमवा कर या कर दे अमुवा अब तो हाथ हे तोरे मोर तन तमुरा, तैं तार तमुरा के करेजा मा धरे हंव मया‘, फर धतुरा के अपने नाम ल जपत रहिथव राधा-श्याम ला घोरे मोर मन के आशा विश्वास तोर मन के अमरबेल होगे पीयर-पीयर मोर मन अउ पीयर-पीयर मोर तन होगे मोर मया के आगी दधकत हे तोर मया ला जोरे तोर बहिया लहरावत हे जस नदिया के लहरा मछरी कस इतरावत हंव मैं, तोर मया के दहरा तोर देह के छाँव बन के मैं रेंगंव कोरे-कोरे

//घर-घर के दीया बन जाबे//

श्री हरिवंशराय बच्चन के 1955 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘प्रणय पत्रिका‘ में प्रकाशित कविता ‘मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद- //घर-घर के दीया बन जाबे// मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। सुरूज करेजा मा अंगार धरे सात रंग बरसाथे धरती म । समुन्दर नुनछुर पानी पी के अमरित बरसाथे धरती म ।। घाव छाती म धरती सहिके महर-महर ममहाथे फूल म.... अपन जात धरम मरजाद, रे मन दुख मा भुला झन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। पुण्य हा जमा होथे जब आगी करेजा मा लगथे । येखर मरम जाने ओही जेखर काया ये सुलगथे ।। अंतस भरे रखथे जेन हा बनथे राख-धुंआ कचरा ... बाहिर निकल नाचथे-गाथे, ताव सकेल परकाश बन जाबे । मोर मन के दहकत आगी, घर-घर के दीया बन जाबे ।। अनुवादक-रमेश चौहान -------------------------- मूल रचना- ‘मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ‘

रद्दा जोहत हे तोरे

शोभान-सिंहिका गाड़ी बने चलावव गा, चारो डहर देख । डेरी बाजू रहे रहव, छोड़व मीन-मेख ।। दारु मंद पीयव मत तुम, हेंडिल धरे हाथ । ओवरटेक करव मत गा, तुम कोखरो साथ ।। जीवन अनमोल हे, येखर समझ मोल । हाथ-पाँव तब सड़क थरव, मन मा नाप-तोल । फिरना हे अपने घर मा, चारो खूट घूम । रद्दा जोहत हे तोरे, लइका करत धूम । -रमेश चौहान

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