//चौपाई छंद// बेटी मुड मा मउर पहीरे । सोच धरे हे घात गहीरे अपने अंतस सोचत जावय । मुँह ले बोली एक न आवय चल चिरईया नवा बसेरा । अपन करम ला धरे पसेरा पर ला अब अपने हे करना । मया प्रीत ला ओली भरना कइसे सपना देखव आँखी । मइके मा बंधे हे पाँखी रीत जगत के एके हावय । मइके छोड़े ससुरे भावय मोर भाग हा ओखर हाथ म । जीना मरना जेखर साथ म दाना-पानी संगे खाबो । अपन खोंधरा हम सिरजाबो सास-ससुर हा देवी-देवा । मंदिर जइसे करबो सेवा दूनों हाथ म बजही ताली । नो हय ये हा सपना खाली धुरी सृष्टि के जेला कहिथे । जेखर बर सब जीथे मरथे मृत्यु लोक के हम चिरईया । सुख-दुख के केवल सहईया
हिन्दी साहित्य में भारतीय लोकसंस्कृति की जड़ें और उसका जीवंत स्वरूप-रमेश
चौहान
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रमेश चौहान एक वरिष्ठ साहित्यकाारहैं, जो हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं
में गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में समान अधिकार रखते हैं । पद्य में आपका
परिचय एक...
10 घंटे पहले