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सितंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कतका झन देखे हें-

पढ़े काबर चार आखर,

रूपमाला छंद पढ़े काबर चार आखर, इहां सोचे कोन । डालडा के बने गहना, होय चांदी सोन ।। पेट पूजा करे भर हे, बने ज्ञानी पोठ । सबो पढ़ लिख नई जाने, गाँव के कुछु गोठ ।। मोर लइका मोर बीबी, मोर ये घर द्वार । छोड़ दाई ददा भाई, करे हे अत्याचार ।। सोंध माटी नई जाने, डगर के चिखला देख । पढ़े अइसन दिखे ओला, गांव मा मिन मेख । ज्ञान दीया कहाथे जब, कहां हे अंजोर । नौकरी बर लगे लाइन, अपन गठरी जोर ।।

गांव

मधुमालती छंद सुन गोठ ला, ये धाम के। पहिचान हे, जे काम के हम आन के, खाये सुता । धर खांध ला, करथन बुता छोटे बड़े, देथे मया । सब आदमी,  करथे दया सुख आन के, मन मा धरे । दुख आन के, सब झन भरे काकी कका, भइया कहे । दाई बबा, सब बर सहे हर बात ला, सब मानथे । सब नीत ला, भल जानथे चल खेत मा, हँसिया धरे । हे धान मा, निंदा भरे दाई कहे, चल बेटवा ।  मत घूम तै, बन लेठवा ये देष के, बड़ शान हे । जेखर इहां तो मान हे जेला कहे, सब गांव हे । जे स्वर्ग ले निक ठांव हे

//मुक्तक//

सीखव सीखव बने सीखव साँव चेत होय । आशा पैदा करव खातूहार खेत होय ।। बदरा बदरा निमारव छाँट बीज भात पानी बादर सहव संगी नदी रेत होय ।। -रमेश चौहान

कतका दिन ले सहिबो

जे चोरी लुका करय, अड़बड़ घात । अइसन बैरी ला अब, मारव लात ।। कतका दिन ले सहिबो, अइसन बात । कब तक बिरबिट करिया, रहिही रात ।। नई भुलाये हन हम, पठान कोट । फेर उरी मा कइसे, होगे चोट ।। बीस मार के बैरी, मरथे एक । अब तो बैरी के सब, रद्दा छेक । कठपुतली के डोरी, काखर हाथ । कोन-कोन देवत हे, उनखर साथ ।। छोलव चाचव अब तो , कचरा कांद । बैरी हा घुसरे हे, जेने मांद ।।

//भ्रष्टाचार// (नवगीत)

घुना किरा जइसे कठवा के भ्रष्टाचार धसे हे लालच हा अजगर असन मनखे मन ला लिलत हे ठाठ-बाट के लत लगे दारू-मंद कस पियत हे पइसा पइसा मनखे चिहरय जइसे भूत कसे हे दफ्तर दफ्तर काम बर टेक्स लगे हे एक ठन खास आम के ये चलन बुरा लगय ना एक कन हमर देश के ताना बाना हा  अपने जाल फसे हे रक्तबीज राक्षस असन सिरजाथे रक्सा नवा चारो कोती हे लमे जइसे बगरे हे हवा अपन हाथ मा खप्पर धर के अबतक कोन धसे हे ।

प्रभु ला हस बिसराये

चवपैया छंद काबर तैं संगी, करत मतंगी, प्रभु ला हस बिसराये। ये तोरे काया, प्रभु के दाया, ओही ला भरमाये ।। धर मनखे चोला, कइसे भोला, होगे खुद बड़ ज्ञानी । तैं दुनिया दारी, करथस भारी, जीयत भर मन मानी ।। रमेश चौहान

कहस अपन ला मनखे तैं हा

तोर करेजा पथरा होगे । जागे जागे कइसे सोगे । आँखी आघू कुहरा छागे अपन सुवारथ आघू आगे कहस अपन ला मनखे तैं हा तोरे सेती दूसर भोगे । बेजा कब्जा घात करे हस जगह जगह मा मात करे हस खोर-गली अउ तरिया परिया जेती देखव एके रोगे । पर के बांटा अपने माने फोकट बर तैं पसर ल ताने एको लाज न तोला आवय ये गौटिया भिखारी होगे ।

छत्तीसगढ़ी नवगीत: नाचत हे परिया

(नवगीत म पहिली प्रयास) नाचत हे परिया गावत तरिया घर कुरिया ला, देख बड़े । सुन्ना गोदी अब भरे दिखे आदमी पोठ अब सब झंझट टूट गे सुन के गुरतुर गोठ सब नरवा सगरी अउ पयडगरी सड़क शहर के, माथ जड़े । सोन मितानी हे बदे, करिया लोहा संग कांदी कचरा घाट हा देखत हे हो दंग चौरा नंदागे, पार हरागे बइला गाड़ी, टूट खड़े । छितका कोठा गाय के पथरा कस भगवान पैरा भूसा ले उचक खाय खेत के धान नाचे हे मनखे बहुते तनके खटिया डारे, पाँव खड़े ।।

ये बरखा रानी विनती सुनलव

ये बरखा रानी, सुनव कहानी, मोर जुबानी, ध्यान धरे । तोरे बिन मनखे, रहय न तनके, खाय न मनके, भूख मरे ।। बड़ चिंता करथें, सोच म मरथे, देखत जरथे, खेत जरे । कइसे के जीबो, काला पीबो, बूंद न एको, तोर परे ।। थोकिन तो गुनलव, विनती सुनलव, बरसव रद्-रद्, एक घड़ी । मानव तुम कहना, फाटे धनहा, खेत खार के, जोड़ कड़ी ।। तरिया हे सुख्खा, बोर ह दुच्छा, बूंद-बूंद ना, हाथ धरे । सुन बरखा दाई, करव सहाई, तोर बिना सब, जीव मरे ।।

भौजी

ये सुक्सा भाजी, खाहव काजी, पूछय भौजी, साग धरे  । ओ रांधत जेवन, खेवन-खेवन, डारत फोरन, मात करे ।। ओखर तो रांधे, सबो ल बांधे, मया म फांदे, जोर मया । जब दाई खावय, हाँस बतावय, बहुत सुहावय, देत दया ।

रदिफ, काफिया,बहर

221/ 222/ 212/ 2222 आखिर म घेरी-बेरी जउन आखर आथे । ओ हा गजल मुक्तक के रदिफ तो बन जाथे । तुक काफिया हा होथे रदिफ के आघू मा, एके असन मात्रा क्रम बहर बन इतराथे  । -रमेश चौहान

हमर इज्जत ला लूटत हवे

122 222 212 कुकुर माकर कस भूकत हवे । शिकारी कस तो टूटत हवे ।। बने छैला टूरा मन इहां हमर इज्जत ला लूटत हवे ।

सुन रे भोला

ये मनखे चोला, सुन रे भोला, मरकी जइसे, फूट जथे । ये दुनियादारी, चार दुवारी, परे परे तो, छूट जथे ।। मनखेपन छोड़े, मुँह ला मोड़े, सबो आदमी, ठाँड़ खड़े । अपने ला माने, छाती ताने, मारत शाने, दांव लड़े ।।

देख महंगाई

ये चाउर आटा, भाजी भाटा, आही कइसे, दू पइसा । देखव महँगाई, बड़ करलाई, मनखे होगे, जस भइसा ।। वो दिन अउ राते, काम म माते, बस पइसा के, चक्कर मा । माथा ला फोरे, जांगर टोरे, अपन पेट के, टक्कर मा ।

मुक्तक

मुक्तक 122 222, 221 121 2 सुते मनखे ला तै, झकझोर उठाय हस । गुलामी के भिथिया, तैं टोर गिराय हस ।। उमा सुत लंबोदर, वो देश ल देख तो । भरे बैरी मन हे, तैं आज भुलाय हस । -रमेश चौहान

मुक्तक

मुक्तक 222 212, 211 2221 आखर के देवता, ज्ञान भरव महराज । बाधा के हरइया, कष्ट हरव महराज ।। जग के गण राज तैं, राख हमर गा मान । हम सब तोरे शरण, हाथ धरव महराज ।। -रमेश चौहान

जस चश्मा के रंग होय

जस चश्मा के रंग होय । तइसे मनखे दंग होय भाटा कइसे हवय लाल । पड़े सोच मा खेमलाल चश्मा ला मन मा चढ़ाय । जग ला देखय हड़बड़ाय करिया करिया हवय झार । ओ हा कहय मन ला मार अपन सोच ले दुनिया देख । मनखे जग के करे लेख तोर मोर हे एक रंग । कहिथे जब तक रहय संग दुनिया हा तो हवय एक । दिखथे घिनहा कभू नेक दुनिया के हे अपन हाल । तोरे मन के अपन चाल दस अँगरी हे तोर हाथ । छोटे बड़े हवे एक साथ मुठ्ठी बनके रहय संग । काबर होथव तुमन तंग

बादर पानी मा कभू

बादर पानी मा कभू, चलय न ककरो जोर । कब होही बरखा इहां, जानय वो चितचोर ।। जानय वो चितचोर, बचाही के डूबोही । वोही लेथे मार, दया कर वो सिरजोही । माथा धरे रमेश, छोड़ बइठे हे मादर । कइसे करय उमंग, दिखय ना पानी बादर ।।

तीजा

करू करेला तैं हर रांध । रहिबो तीजा पेट ल बांध तीजा मा निरजला उपास । नारीमन के हे विश्वास छत्तीसगढ़ी ये संस्कार । बांधय हमला मया दुलार धरके श्रद्धा अउ विश्वास । दाई माई रहय उपास सीता के हे जइसे राम । लक्ष्मी के हे जइसे श्याम गौरी जइसे भोला तोर । रहय जियर-जाँवर हा मोर अमर रहय हमरे अहिवात । राखव गौरी हमरे बात मांघमोति हा चमकय माथ । खनकय चूरी मोरे हाथ नारी बर हे पति भगवान । मांगत हँव ओखर बर दान काम बुता ला ओखर साज । रख दे गौरी हमरे लाज

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