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कतका झन देखे हें-

काबर डारे मोर ऊपर गलगल ले सोना पानी

काबर डारे मोर ऊपर, गलगल ले सोना पानी नवा जमाना के चलन ताम-झाम ला सब भाथें गुण-अवगुण देखय नही रंग-रूप मा मोहाथें मैं डालडा गरीब के संगी गढ़थव अपन कहानी चारदीवारी  के फइका दिन ब दिन टूटत हे लइका बच्चा मा भूलाये दाई-ददा छूटत हे मैं अढ़हा-गोढ़हा लइका दाई के करेजाचानी संस्कृति अउ संस्कार बर कोनो ना कोनो प्रश्न खड़े हे अपन गांव के चलन मिटाये बर देशी अंग्रेज के फौज खड़े हे मैं मंगल पाण्डेय लक्ष्मीबाई के जुबानी

भारत भुईंया रोवत हे

आजादी के माला जपत काबर उलम्बा होवत हे एक रूख के थांघा होके, अलग-अलग डोलत हे एक गीत के सुर-ताल मा, अलगे बोली बोलत हे देश भक्ति के होली भूंज के होरा कस खोवत हे विरोध करे के नाम म मूंदें हे आँखी-कान अपने देष ला गारी देके मारत हावय शान राजनीति के गुस्सा ला देशद्रोह म धोवत हे अपन अधिकार बर घेरी-घेरी जेन हा नगाड़ा ढोकय कर्तव्य करे के पारी मा डफली ला घला रोकय आजादी के निरमल पानी मा जहर-महुरा घोरत हे गांव के गली परीया कतका झन मन छेके हे देश गांव के विकास के रद्दा कतका झन मन रोके हे अइसन लइका ला देख-देख भारत भुईंया रोवत हे

आँखी म निंदिया आवत नई हे

तोर बिना रे जोही आँखी म निंदिया आवत नई हे ऊबुक-चुबुक मनुवा करे सुरता के दहरा मा आँखी-आँखी रतिहा पहागे तोर मया के पहरा मा चम्मा-चमेली सेज-सुपेती मोला एको भावत नई हे तोर बिना रे जोही आँखी म निंदिया आवत नई हे मोर ओठ के दमकत रंग ह लाली ले कारी होगे आँखी के छलकत आंसू काजर ले भारी होगे अइसे पीरा देस रे छलिया छाती के पीरा जावत नई हे तोर बिना रे जोही आँखी म निंदिया आवत नई हे आनी-बानी सपना के बादर चारो कोती छाये हे तोरे मोहनी काया के फोटू घेरी-बेरी बनाये हे छाती म आगी दहकत हे बैरी पिरोहिल आवत नई हे तोर बिना रे जोही आँखी म निंदिया आवत नई हे

मोर ददा के छठ्ठी हे

मोर ददा के छठ्ठी हे, नेवता हे झारा-झारा कथा के साधु बनिया जइसे मोर बबा बिसरावत गे आजे-काले करहू कहि-कहि ददा के छठ्ठी भूलावत गे सपना बबा ह देखत रहिगे टूटगे जीनगी के तारा नवा जमाना के नवा चलन हे बाबू मोरे मानव मोर जीनगी ये सपना ल अपने तुमन जानव घेरी-घेरी सपना म आके बबा गोठ करय पिआरा बबा के सपना मैं ह एक दिन ददा ले जाके कहेंव ददा के मुह ल ताकत-ताकत उत्तर जोहत रहेंव सन खाये पटुवा म अभरे चेहरा म बजगे बारा बड़ सोच-बिचार के ददा मुच-मुच बड़ हाँसिस मुड़ डोलावत-डोलवत बबा के सपना म फासिस पुरखा के सपना पूरा करव बेटा मोर दुलारा छै दिन के छठ्ठी ह जब होथे महिनो बाद पचास बसर के लइका होके देखंव येखर स्वाद छठ्ठी के काय रखे हे जब जागव भिनसारा

चना होरा कस, लइकापन लेसागे

चना होरा कस, लइकापन लेसागे पेट भीतर लइका के संचरे ओखर बर कोठा खोजत हे, पढ़ई-लिखई के चोचला धर स्कूल-हास्टल म बोजत हे देखा-देखी के चलन दाई-ददा बउरागे सुत उठ के बड़े बिहनिया स्कूल मोटर म बइठे बेरा बुड़ती घर पहुॅचे लइका भूख-पियास म अइठे अंग्रेजी चलन के दौरी म लइका मन मिंजागे बारो महिना चौबीस घंटा लइका के पाछू परे हे खाना-पीना खेल-कूद सब अंग्रेजी पुस्तक म भरे हे पीठ म लदका के परे बछवा ह बइला कहागे चिरई-चिरगुन, नदिया-नरवा अउ गाँव के मनखे लइका केवल फोटू म देखे सउहे देखे न तनके अपने गाँव के जनमे लइका सगा-पहुना कस लागे साहेब-सुहबा, डॉक्टर-मास्टर हो जाही मोर लइका जइसने बड़का नौकरी होही तइसने रौबदारी के फइका पुस्तक के किरा बिलबिलावत देष-राज म समागे बंद कमरा म बइठे-बइठे साहब योजना अपने गढ़थे घाम-पसीना जीयत भर न जाने पसीना के रंग भरथे भुईंया के चिखला जाने न जेन सहेब बन के आगे

मैं तो बेटी के बाप

//नवगीत// दुख के हाथी मुड़ मा बइठे कइसे बिताववं रात टुकुर-टुकुर बादर ला देखत ढलगे हवं चुपचाप न रोग-राई हे न प्रेम रोग हे मैं तो बेटी के बाप कोन सुनही काला सुनावंव अपन मन के बात जतका मोरे चद्दर रहिस हे ततका पांव मारेंव चिरई कस चुन-चुन दाना ओखर मुह मा डारेंव बेटी-बेटा एक मान के पढाय लिखाय हंव घात कइसे कहंव अपन पीरा ल मिलय न लइका अइसे पढ़े-लिखे गुणवान होय मोरे नोनी हे जइसे पढ़ई-लिखई छोड़-छोड़ के टुरा दारू म गे मात जांवर-जीयर बिन बिरथा हे नोनी के बुता काम दूनो चक्का एक होय म चलथे गाड़ी तमाम आंगा-भारू कइसे फांदवं लाके कोनो बरात टूरा अउ टूरा के ददा थोकिन गुनव सोचव पढ़ई लिखई पूरा करके काम बुता सरीखव नोनी बाबू एक बरोबर बाढ़त रहल दिन रात -रमेश चौहान

बिता भर के टुरा कहय तोर बाप के का जात हे

बिता भर के टुरा कहय तोर बाप के का जात हे कउवां कुकुर कस डोकरा भुकय देख अपन गांव के लइका ला अपन हद म रहे रहव बाबू झन टोरव लाज के फइका ला ही-ही भकभक जादा झन करव तोरे दाई-माई जात हे गली मोहाटी बाटल-साटल खोले काबर बइठे दारू मंद के आगी म जरे मरे सांप कस अइठे सरहा कोतरी के मास तोला कइसन भात हे गली-गली म डिलवा ब्रेकर तोर सेखी न रोक सकय तोरे दीदी भाई-भोजी तोला कोसत अपने थकय घूम-घूम क मेछरावत गोल्लर नागर म कहां कमात हे ।

मया के सुरता

उत्ती के बेरा जइसे सुरता तोरे जागे हे मन के पसरे बादर म सोना कस चमकत हे मोरे काया के धरती म अंग-अंग चहकत हे दरस-परस के सपना मा डेना-पांखी लागे हे सुरता के खरे मझनिया देह लकलक ले तिपे हे अंतस के धीर अटावत मया तोरे लिपे हे अंग-अंग म अगन लगे काया म मन छागे हे तोर हंसी के पुरवाही सुरता म जब बोहाय आँखी के बोली बतरस संझा जइसे जनाय आँखी म आँखी के समाये आँखी म रतिहा आगे हे

सुरूज के किरण संग मन के रेस लगे हे

सुरूज के किरण संग मन के रेस लगे हे छिन मा तोला छिन मा मासा नाना रूप धरे हे काया पिंजरा के मैना हा पिंजरा म कहां परे हे करिया गोरिया सब ला मन बैरी हा ठगे हे सरग-नरक ल छिन मा लमरय सुते-सुते खटिया मा झरर-झरर बरय बुतावय जइसे भूरी रहेटिया मा माया के धुन्धरा म लगथे मन आत्मा हा सगे हे मन के जीते जीत हे हारही कइसे मन ह रात सुरूज दिखय नही हरहिंछा घूमय मन ह ‘मैं‘ जानय न अंतर मन म अइसन पगे हे

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