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संदेश

कतका झन देखे हें-

गोठ मोरे तै गुनबे

नवा नवा तो जोश, देख हे लइका मन के । भरना मुठ्ठी विश्व, ठान ले हे बन ठन के ।। धर के अंतरजाल, करे हें माथा पच्ची । एक काम दिन रात, करे सब बच्चा बच्ची ।। मोबाईल कम्प्यूटर युग, परे रात दिन फेर मा । पल मा बादर ला अमरथे, सुते सुते ओ ढेर मा ।। होय नफा नुकसान, काम तै कोनो कर ले । करे यंत्र ला दास, फायदा झोली भर ले ।। बने कहूं तै दास, अपन माथा ला धुनबे । आज नही ता काल, गोठ मोरे तै गुनबे ।। अकलमंद खुद ला मान के, करथस तै तो काम रे । अड़हा नइये दाई ददा, खरा सोन हे जान रे ।। -रमेशकुमार सिंह चौहान

संझा (अनुदित रचना)

मूल रचना - ‘‘संध्या सुंदरी‘‘ मूल रचनाकार-श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ -------------------------------------------- बेरा ऐती न ओती बेरा बुडत रहिस, करिया रंग बादर ले सुघ्घर उतरत रहिस, संझा वो संझा, सुघ्घर परी असन, धीरे धीरे धीरे............... बुड़ती म, चुलबुलाहट के अता पता नइये ओखर दूनो होट ले टपकत हे मधुरस, फेर कतका हे गंभीर .... न हसी न ठिठोली, हंसत  हे त एके ठन तारा, करिया करिया चुंदी मा, गुथाय फूल गजरा असन मनमोहनी के रूप संवारत चुप्पी के नार वो तो नाजुक कली चुपचाप सिधवा के गर मा बहिया डारे बादर रस्ता ले आवत छांव असन नई बाजत हे हाथ मा कोनो चूरी न कोई मया के राग न अलाप मुक्का हे साटी के घुंघरू घला एक्के भाखा हे ओहू बोले नई जा सकय चुप चुप एकदम चुप ए ही हा गुंजत हे बदर मा, धरती मा सोवत तरिया मा, मुंदावत कमल फूल मा रूप के घमंडी नदिया के फइले छाती मा धीर गंभीर पहाड़ मा, हिमालय के कोरा मा इतरावत मेछरावत समुंद्दर के लहरा मा धरती आकास मा, हवा पानी आगी मा एक्के भाखा हे ओहू बोले नई जा सकय चुप चुप एकदम चुप एही हा गुंजत हे अउ का हे, कुछु नइये नशा धरे आवत

पढ़ई पढ़ई

पढ़ई पढ़ई अइसन पढ़ई ले आखिर का होही । गुदा के अता पता नइये बाचे हवव बस गोही ।। कौड़ी के न काम के जांगर चोर भर तो होही । रात भर जागे हे बाबू, दिन भर अब तो सोही ।। न ओला पुरखा के मान हे न देश धरम के ज्ञान । अंग्रेजियत देखा देखा हमन ला तो अब बिट्टोही ।। विदेसी सिक्षा जगावय विदेसी संस्कृति के अभिमान । अपन धरम ला मानय नही बाबू बनगे अब कुल द्रोही ।। रीति रिवाज संस्कृती ला देवत हे अंधविश्वास के नाम । बिना विश्वास के देश परिवार समाज कइसे के होही ।। लईका पढ़थ हे कहिके, कोनो नई करावय कुछु काम । रूढ़ाय जांगर ले आखीर काम कइसे करके होही ।। लईका पढ़त लिखत हे घाते फेर कढ़त नइये । कढ़े बिना सूजी मा धागा कइसे करके पिरोही ।। पागे कहु नौकरी चाकरी त होगे परदेशिया । बुढ़ाय दाई ददा के डोंगा ला अब कोन खोही ।। नई पाइस कहूं कुछु काम ता घर के ना घाट के माथा धर के बाबू अब तो काहेक के  रोही ।। सिरतुन कहंव चाहे कोनो गारी देवव के गल्ला । गांव-गली नेता अऊ ऊखर चम्मच के अब भरमार होही । इंकरे आये ले होवत हे भ्रष्टाचार के अतका हल्ला । ईखर मन के करम ले अब देश शरमसार तो होही ।।

जानव अपन छंद ला

पाठ-1 छंद के पहिचान श्री गणपति गणराज के, पहिली पाँव पखार । लिखंव छंद के रंग ला, पिंगल भानु विचार ।। होहू सहाय शारदे, रहिहव मोरे संग । कविता के सब गुण-धरम, भरत छंद के रंग ।। गुरू पिंगल अउ भानु के, सुमरी-सुमरी नाम । नियम-धियम रमेश‘ लिखय, छंद गढ़े के काम ।। छंद वेद के पाँव मा, माथा रखय ‘रमेश‘ । छंद ज्ञान के धार ला, जग मा भरय गणेश ।। छंद- आखर गति यति के नियम, आखिर एके बंद । जे कविता मा होय हे, ओही होथे छंद ।। अनुसासन के पाठ ले, बनथे कोनो छंद । देख ताक के शब्द रख, बन जाही मकरंद ।। कविता के हर रंग मा, नियम-धियम हे एक । गति यति लय अउ वर्ण ला, ध्यान लगा के देख ।। छंद के अंग- गति यति मात्रा वर्ण तुक, अउ गाये के ढंग । गण पद अउ होथे चरण, सबो छंद के अंग ।। गति- छंद पाठ के रीत मा, होथे ग चढ़ उतार । छंद पाठ के ढंग हा, गति के करे सचार ।। यति- छंद पाठ करते बखत, रूकथन जब हम थोर । बीच-बीच मा आय यति, गति ला देथे टोर ।। आखर - आखर के दू भेद हे, स्वर व्यंजन हे नाम । ‘अ‘ ले ‘अः‘ तक तो स्वर हे, बाकी व्यंजन जान । बाकी व्यंजन जान, दीर्घ लघु जेमा होथे ।

वाह रे तै तो मनखे

जस भेडि़या धसान, धसे मनखे काबर हे । छेके परिया गांव, जीव ले तो जांगर हे ।। नदिया नरवा छेक, करे तै अपने वासा । बचे नही गऊठान, वाह रे तोर तमाशा । रद्दा गाड़ी रवन, कोलकी होत जात हे । अइसन तोरे काम, कोन ला आज भात हे ।। रोके तोला जेन, ओखरे बर तै दतगे । मनखे मनखे कहय, वाह रे तै तो मनखे ।। दे दूसर ला दोष, दोष अपने दिखय नही । दिखय कहूं ता देख, तहूं हस ग दूसर सही ।। धरम करम के मान, लगे अब पथरा जइसे । पथरा के भगवान, देख मनखे हे कइसे ।

बेटी (रोला छंद)

बेटी मयारू होय, ददा के सब झन कहिथे । दुनिया के सब दर्द, तोर पागा बर सहिथे ।। ससुरे मइके लाज, हाथ मा जेखर होथे । ओही बेटी आज, मुड़ी धर काबर रोथे।।

कृष्ण जन्माष्टमी

आठे कन्हया के लमे बाह भर बधाई भादो के महीना, घटा छाये अंधियारी, बड़ डरावना हे, ये रात कारी कारी । कंस के कारागार, बड़ रहिन पहेरेदार, चारो कोती चमुन्दा, खुल्ला नईये एकोद्वार । देवकी वासुदेव पुकारे हे दीनानाथ, अब दुख सहावत नइये करलव सनाथ । एक एक करके छैय लइका मारे कंस, सातवइया घला होगे कइसे अपभ्रंस । आठवईंया के हे बारी कइसे करव तइयारी, ऐखरे बर होय हे आकाषवाणी हे खरारी । मन खिलखिवत हे फेर थोकिन डर्रावत हे, कंस के काल हे के पहिली कस एखरो हाल हे । ओही समय चमके बिजली घटाटोप, निचट अंधियारी के होगे ऊंहा लोप । बिजली अतका के जम्मो के आंखी कान मुंदागे, दमकत बदन चमकत मुकुट चार हाथ वाले आगे । देवकी वासुदेव के हाथ गोड़ के बेड़ी फेकागे, जम्मो पहरेदारमन ल बड़ जोर के निदं आगे । देखत हे देवकी वासुदेव त देखत रहिगे, कतका सुघ्घर हे ओखर रूप मनोहर का कहिबे । चिटक भर म होइस परमपिता के ऊंहला भान, नाना भांति ले करे लगिन ऊंखर यशोगान । तुहीमन सृष्टि के करइवा अव जम्मो जीव के देखइया अव, धरती के भार हरइया अव जीवन नइया के खेवइया अव । मायापति माया देखाके होगे अंतरध्यान,

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