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कतका झन देखे हें-

सुरता साहित्य के धरोहर

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मया कोखरो झन रूठय

कइसन जग मा रीत बनाये, प्रेम डोर मा सब बंधाये । मिलन संग मा बिछुडन जग मा, फेरे काबर राम बनाये ।। छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय लोरिक-चंदा हीरे-रांझा,  प्रेम जहर ला मन भर पीये । मरय मया मा दूनों प्रेमी,  अपन मया बर जिनगी जीये ।। छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय काया बर तो हृदय बनाये, जेमा तो मया जगाये । फेरे काबर रामा तैं हा, आगी काबर येमा लगाये । छुटे प्राण ये भले देह ले, हो .......... 2 मया कोखरो झन छूटय, कभू करेजा झन टूटय जग बैरी चाहे हो जावय,  हो.........2 मया कोखरो झन रूठय भाग कोखरो झन फूटय

एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे

(श्री गोपालदास नीरज  की कविता‘‘जीवन नही मरा करता‘‘ से अभिप्रेरित) लुका-लुका के रोवइयामन, कान खोल के सुन लौ रे । फोकट-फोकट आँसु झरइया, बात मोर ये गुन लौ रे ।। हार-जीत सिक्का कस पहलू, राखे जीवन हर जोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। सपना आखिर कहिथें काला, थोकिन तो अब गुन लौ रे । आँसु सुते जस आँखी पुतरी,  मन मा पलथे सुन लौ रे ।। टुटे नींद के जब ओ सपना, का बिगड़े हे तब भोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। काय गँवा जाथे दुनिया मा, जिल्द ल बदले जब पोथी । रतिहा के घोर अंधियारी, पहिरे जब घमहा धोती ।। कभू सिरावय ना बचपन हा, एक खिलौना के टोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। कुँआ पार मा कतका मरकी, घेरी-बेरी जब फूटे । डोंगा नदिया डूबत रहिथे, घाट-घठौंदा कब छूटे ।। डारा-पाना हा झरथे भर,  घाम-झांझ कतको झोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। काहीं ना बिगड़य दर्पण के, जब कोनो मुँह ना देखे । धुर्रा रोके रूकय नहीं गा, कोखरोच रद्दा छेके ।। ममहावत रहिथे रूख-राई, भले फूल लव सब टोरे । एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।। -रमेश चौहान

हिन्दी छत्तीसगढ़ी भाखा

हिन्दी छत्तीसगढ़ी भाखा, अंतस गोमुख के गंगा । छलछल-छलछल पावन धारा, तन मन ला राखे चंगा ।। फेशन बैरी छाती छेदय, मिलावटी बिख ला घोरे । चुटुर-पुटुर अंग्रेजी आखर, पावन धारा मा बोरे ।।

ये हँसी ठिठोली

ये हँसी ठिठोली, गुरूतुर बोली, मोरे अंतस खोले । ये कारी आँखी, हावय साखी, मोरे अंतस डोले ।। जस चंदा टुकड़ा, तोरे मुखड़ा, मोरे पूरणमासी । मन कुहकत रहिथे, चहकत रहिथे, तोरे सुन-सुन हाँसी ।।

एक रही हम मनखे जात

तोर मोर हे एके जात, दूनों हन मनखे प्राणी । नेक सोच ला अंतस राख, करबो गा हमन सियानी ।। तोर मोर ले बड़का देश, राखब हम एला एके । नो हन कोनो बड़का छोट, बुरा सोच देथन फेके ।। अगड़ी-पिछड़ी कइसन जात, अउ ये दलित आदिवासी । बांट रखे  हमरे सरकार, इही काम हे बदमासी ।। वोट बैंक पर राखे छांट, नेता के ये शैतानी । एक रही हम मनखे जात, छोड़-छाड़ अब नादानी ।। -रमेश चौहान

परगे आदत

रहत-रहत हमला, परगे आदत, हरदम रहत गुलाम । रहिस हमर जीवन, काम-बुता सब, मुगल आंग्ल के नाम ।। बड़ अचरज लगथे, सुनत-गुनत सब, सोच आन के लाद । कहिथन अब हम सब, होगे हन गा, तन मन ले आजाद ।।

लोकतंत्र के देवता

रोजी-रोटी के प्रश्न के, मिलय न एक जवाब । भिखमंगा तो जान के, मुफत बांटथे जनाब ।। फोकट अउ ये छूट के, चलन करय सरकार । जेला देखव तेन हा, बोहावत हे लार । सिरतुन जेन गरीब हे, जानय ना कुछु एक । जेन बने धनवान हे, मजा करत हे नेक । काबर कोनो ना कहय, येला भ्रष्टाचार । जनता अउ सरकार के, लगथे एक विचार ।। हर सरकारी योजना, मंडल के रखवार । चिंता कहां गरीब के, मरजय धारे धार । फोकट बांटे छोड़ के, केवल देवय काम । काम बुता हर हाथ मा, मनखे सुखी तमाम । लोकतंत्र के देवता, माने खुद ला आन । चढ़े चढ़ावा देख के,  बने रहय अनजान ।। -रमेशचौहान

छत्तीसगढ़ी ला पोठ बनाव

भाषा अपन बिगाड़ मत, देखा- शे खी आन कहाये । देवनागरी के सबो,  बावन अक्षर घात सुहाये ।। छत्तीसगढ़ी  मा भरव,  सबो वर्ण ले शब्द बनाए । कदर बाढ़ही एखरे , तत्सम आखर घला चलाए ।। पढ़े- लिखे अब सब हवय, उच्चारण ला पोठ बनाही। दूसर भाषा संग तब, अपने भाषा हाथ मिलाही । करव मानकीकरण अब, कलमकार सब एक कहाये । पोठ करव लइका अपन, भाषा अपने पोठ धराये ।।

कभू आय कभू तो जाय

कभू आय कभू तो जाय, सुख बादर जेन कहाये। सदा रहय नहीं गा साथ, दुख जतका घाम जनाये ।। बने हवय इहां दिन रात, संघरा कहां टिक पाये । बड़े होय भले ओ रात, दिन पक्का फेर सुहाये ।।

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