जांगर टोर-जेन हा, खून पसीना बहाये,
ओही मनखे के संगी, नाम मजदूर हे ।
रिरि-रिरि दर-दर, दू पइसा पाये बर
ओ भटका खायेबर, आज मजबूर हे ।
अपन गाँव गली छोड़, अपने ले मुँह मोड़
जाके परदेश बसे, अपने ले दूर हे ।
सुख-दुख मा लहुटे, फेर शहर पहुटे
हमर बनिहार के, एहिच दस्तूर हे ।।
कोरोना माहामारी के, मार पेट मा सहिके
का करय बिचारा, गाँव कोती आय हे ।
करे बर बुता नहीं, खाये बर कुछु नहीं
डेरा-डंडी छोड़-छाड, दरद देखाय हे ।
नेता हल्ला-गुल्ला कर, अपने रोटी सेकय
दूसर के पीरा मा, राजनीति भाय हे ।
येखर-वोखर पाला, सरकार गेंद फेकत
अपने पूछी ल संगी, खुदे सहराय हे ।
-रमेश चौहान
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