देखत रद्दा तोर गा, आंखी गे पथराय। संझा आहूू तै कहे, अब ले नइ तो आय ।। अब ले नइ तो आय, तोर कोनो संदेशा । फरकत आंखी मोर, लगत मोला अंदेशा ।। होबे कोनो मेर, बने गदहा कस रेकत । पिये छकत ले दारू, परे होबे तै देखत ।।
आलेख: ‘बदलते समाज में साहित्य की भूमिका: दर्पण से दिशा-सूचक तक’-रमेश चौहान
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प्रस्तावना: साहित्य – जीवन का शाश्वत संवाद साहित्य, मानव सभ्यता के साथ
विकसित हुआ एक शाश्वत संवाद है। इसे प्रायः “समाज का दर्पण” कहा जाता है,
क्योंकि यह अप...
1 दिन पहले