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संदेश

कतका झन देखे हें-

छेरी के गोठ

गाय-गाय के रट ला छोड़व, कहत हवय ये छेरी । मैं ओखर ले का कमतर हँव, सोचव घेरी-बेरी ।। मोर दूध ला पी के देखव, कतका गजब सुहाथे । हाथी-बघवा जइसे ताकत, देह तोर सिरजाथे ।। मैं डारा-पाना भर खाथँव, ओ हा झिल्ली पन्नी । खेत-खार ला तोरे चर के, कर दै झार चवन्नी ।। कभू-कभू मैं हर देखे हँव, तोरे गुह ला खावत । लाज-शरम ला बेच-बेच के, चारो मुड़ा मेछरावत , ।। गोबर ओखर खातू हे तऽअ, मोरो छेरी-लेड़ी । डार देखलव धान-पान मा,, गजब बाढ़ही भेरी ।। मूत ओखरे टीबी मेटय, मोर दमा अउ खाँसी । पूजा थारी ओला देथस, मोला काबर फाँसी ।।

अरुण निगम

अरुण निगमजी भेट हे, जनम दिन उपहार । गुँथत छंद माला अपन, भेट छंद दू चार ।। नाम जइसे आपके हे, काम हमला भाय । छंद साधक छंद गुरु बन, छंद बदरा बन छाय ।। मोठ पानी धार जइसे, छंद ला बरसाय । छंद चेला घात सुख मा, मान गुरु हर्षाय ।। छंद के साध ला छंद के बात ला, छंद के नेह ला जे रचे पोठ के । बाप से बाचगे काम ओ हाथ ले, बाप के पाँव के छाप ला रोठ के ।। गाँव के प्रांत के मान ला बोहिके, रेंग के वो गढ़े हे गली मोठ के । आप ला देख के आप ला लेख के, गोठ तो हे करे प्रांत के गाेठ के ।। बादर हे साहित्य, अरुण सूरज हे ओखर । चमकत हे आकाश, छंद कारज हा चोखर ।। गाँव-गाँव मा आज, छंद के डंका बाजय । छंद छपे साहित्य, आज बहुते के साजय ।। दिन बहुरहि सिरतुन हमर, कटही करिया रात गा । भाखा छत्तीसगढ़ के, करहीं लोगन बात गा ।। कोदूराम "दलित" मोर, गुरु मन के माने । छंद के उजास देख, अउ अंतस जाने ।। अरुण निगम मोर आज, छंद कलम स्याही । जोड़ के "रमेश" हाथ, साधक बन जाही ।।

छोड़! गली-खोर छोड़ दे

छोड़! गली-खोर छोड़ दे । टोर! लोभ-मोह टोर दे फोर! पाप-घड़ा फोर ले । जोर! धरम-करम जोर ले चाकर होवय गाँव के गली । सब हरहिंछा रेंग चली खोर गली ला छोड़ दौ सबे । सरगे लगही गाँव हा तभे का करबे ये जान के, का होही गा काल । काम आज के आज कर, छोड़ बाल के खाल ।। तीजा-पोरा गाँव के, सुग्घर हवय तिहार । बेटीमन के मान ला, राखे हवय सम्हार ।।

छत्तीसगढ़ी दोहे

काल रहिस आजो हवय, बात-बात मा भेद । चलनी एके एक हे, भले हवय कुछ छेद ।। मइल कहाथे हाथ के, पइसा जेखर नाम । ज्ञान लगन के खेल ले, करे हाथ हा काम ।। काम-बुता पहिचान हे, अउ जीवन के नाम । करम नाम ले धरम ये, मानवता के काम ।। छत्तीसगढ़ी दिन भर बोले, घर संगी के संग । फेर पढ़े बर तैं हर ऐला, होथस काबर जंग ।। माँ-बापे ला मार के, जेने करे बिहाव । कतका कोने हे सुखी, थोकिन करव हियाव ।। बिना निमारे दाई पाये, बिना निमारे बाप । जावर-जीयर छांट निमारे, तभो दुखी हव आप । सुरता ओखर मैंं करँव, जेन रहय ना तीर । तोर मया दिल मा बसय, काबर होय अधीर ।। नेता फूल गुलाब के, चमचा कांटा झार । बिना चढ़े तो निशयनी, पहुँचे का दरबार ।। मोरे देह कुरूप हे, कहिथे कोन कुरूप । अपन खदर के छाँव ला, कहिथे कोने धूप ।। कहिथे कोने धूप, अपन जेने ला माने । अपन सबो संस्कार, फेर घटिया वो जाने ।। अपने पुरखा गोठ, कोन रखथे मन घोरे । अपन ददा के धर्म, कोन कहिथे ये मोरे ।। केवल एक मयान अउ, दूठन तो तलवार हे । हमर नगर के हाल के, नेता खेवनहार हे ।। नेता फूल गुलाब के, चमचा कांटा झार । बिना चढ़े तो निशयनी, पहुँचे

काम चाही

काम चाही काम चाही, काम चाही काम । काम बिन बेकार हन हम, देह हे बस नाम ।। वाह रे सरकार तैं हा, तोर कइसन काम । काम छोड़े बांट सबकुछ, फोकटे के नाम ।। -रमेश चौहान

लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर

श्रृंगार दोहागीत जिंस पेंट फटकाय के, निकले जब तैं खोर । लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। देख देख ये रेंगना, कउँवा करें न काँव । मुक्का होगे मंगसा, परे तोर जब छाँव ।। देखइया देखत हवय, अपने आँखी फोर । लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। बरसउ बादर जस दिखे, लहरावत ये केश । मटक-मटक के रेंग के, मारे जब तैं टेश ।। रूप-रंग के तोर तो, गली-गली मा छोर । लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। नाजुक होगे गाल हा, केश करे जब चोट । लाल फूल दसमत खिले, अइसे तोरे ओट ।। छल-छल तो छलकत हवय, मुच-मुच मधुरस घोर । लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। दूनो भौं के बीच मा, चंदा आय लुकाय । सुरूज अपन रोषनी, तोरे मुँह ले पाय ।। नील कमल हा हे खिले, तोरे आंखी कोर ।। लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। अइसन सुंदर तैं दिखे, मिले नहीं उपमान । जेने उपमा ला धरॅंव, होथे तोरे अपमान ।। रोम-रोम बस ये कहय, तैं हा सपना मोर । लिच लिच कनिहा हा करे, ऐ ओ गोरी तोर ।। - रमेशकुमार सिंह चौहान

हे गणपति गणराज प्रभु

हे गणपति गणराज प्रभु, हे गजबदन गणेश, श्रद्धा अउ विश्वास के, लाये भेंट ‘रमेश‘ ।। लाये भेंट ‘रमेश‘, पहिलि तोला परघावत । पाँव गिरे मुड-गोड़, अपन दुख दरद सुनावत । दुख मा फँसे ‘रमेश’, विनति सुनलव हे जगपति । विघ्न विनाशक आच, विघ्न मेटव हे गणपति ।।

सावन

सावन तैं करिया बिलवा हस, तैं छलिया जस कृष्ण मुरारी । जोहत-जोहत रोवत हावँव, आत नई हस  मोर दुवारी ।। बूँद कहां तरिया नरवा कुछु बोर कुवाँ नल हे दुखियारी । बावत धान जरे धनहा अब रोय किसान धरे मुड़ भारी ।। पीयब धोब-नहावब के अब संकट ले बड़ संकट भारी । बोर अटावत खेत सुखावत ले कइसे अब जी बनवारी । आवव-आवव बादर सावन संकट जीवन मा बड़ भारी ।। देर कहूँ अब तैं करबे तब। जीयत बाचब ना जग झारी ।।

चलना खेले ला जाबो रे

चल ना रे खेले ला जाबो  । अबे मजा अब्बड़ के पाबो ।। का राखे ये मोबाइल मा । बइठे-बइठे  ये स्टाइल मा ।। नदिया जाबो तरिया जाबो । कूद-कूद के खूब नहाबो ।। रेसटीप हम डूबे-डूबे । बने खेलबो हमन ह खूबे ।। ढेस पोखरा खोज-खोज के । खाबो अब्बड़ रोज-रोज के ।। का राखे ये मोबाइल मा । बइठे-बइठे  ये स्टाइल मा ।। गिल्ली-डंडा चल धर ना बे । टोड़ी मारत पादी पाबे ।। खट-उल मा कोनो हा चलही । खेले बर जब मन ह मचलही ।। खोर-गली दइहान चली हम । लइकापन के डार चढ़ी हम ।। का राखे ये मोबाइल मा । बइठे-बइठे  ये स्टाइल मा ।।

गणित बनाये के नियम

गणित बनाये के नियम, धर लौ थोकिन ध्यान । जोड़ घटाना सीख के, गुणा भाग ला जान ।। गुणा भाग ला जान, गणित के प्राण बरोबर । एक संग जब देख, चिन्ह ला सबो सरोबर ।। कोष्टक पहिली खोल, फेर "का" जेन तनाये । भाग गुणा तब जोड़, घटा के गणित बनाये ।। -रमेश चौहान

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