अरुण निगमजी भेट हे, जनम दिन उपहार ।
गुँथत छंद माला अपन, भेट छंद दू चार ।।
नाम जइसे आपके हे, काम हमला भाय ।
छंद साधक छंद गुरु बन, छंद बदरा बन छाय ।।
मोठ पानी धार जइसे, छंद ला बरसाय ।
छंद चेला घात सुख मा, मान गुरु हर्षाय ।।
छंद के साध ला छंद के बात ला,
छंद के नेह ला जे रचे पोठ के ।
बाप से बाचगे काम ओ हाथ ले,
बाप के पाँव के छाप ला रोठ के ।।
गाँव के प्रांत के मान ला बोहिके,
रेंग के वो गढ़े हे गली मोठ के ।
आप ला देख के आप ला लेख के,
गोठ तो हे करे प्रांत के गाेठ के ।।
बादर हे साहित्य, अरुण सूरज हे ओखर ।
चमकत हे आकाश, छंद कारज हा चोखर ।।
गाँव-गाँव मा आज, छंद के डंका बाजय ।
छंद छपे साहित्य, आज बहुते के साजय ।।
दिन बहुरहि सिरतुन हमर, कटही करिया रात गा ।
भाखा छत्तीसगढ़ के, करहीं लोगन बात गा ।।
कोदूराम "दलित" मोर, गुरु मन के माने ।
छंद के उजास देख, अउ अंतस जाने ।।
अरुण निगम मोर आज, छंद कलम स्याही ।
जोड़ के "रमेश" हाथ, साधक बन जाही ।।
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