ये बैरी बादर, भुलाय काबर, सब जोहत हें, रद्दा तोरे ।
कतेक ल सताबे, कब तै आबे, पथरावत हे, आंखी मोरे ।।
धरती के छाती, सुलगे आगी, बैरी सूरज, दहकत हे ।
आवत हे सावन, लगे डरावन, पानी बर सब, तरसत हे ।।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
कतेक ल सताबे, कब तै आबे, पथरावत हे, आंखी मोरे ।।
धरती के छाती, सुलगे आगी, बैरी सूरज, दहकत हे ।
आवत हे सावन, लगे डरावन, पानी बर सब, तरसत हे ।।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
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